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अङ्ख प्रलयङ्क संयुक्तः षडङ्गो नाद्यक्षङ्कह्‌ः तस्य चिरोहस्तोरःपाश्चकटीपादतः षडज्ञानि |

नेत पनासाधरक्पाखीचबुकान्युपाक्ानि ०८-५१-५८ ना. (1१114. |) 5, 8 +, 1 2--15,

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1. (च्छाय (पताक्रा नरका) कवककक्ना ८.4. वी ॐ८ 0८1 ५.7 205 (च कणर = 2 छ) ९८1 ०90 गग ८१ नडा @/ (2, 1८17; --

प्रसारितग्राः प्रहिताः याङ्कल्पो भवन्ति हि | कुश्चितथ तथाद्गुष्टः पताक इति स्पतः।। (+. 9--, 18.) 47@).0//*2० 0115 1 -- 9 4-1 1119 =; (प्रहारपाते) > 10. 2. 0" (0 2 (्रिपत्ताक्रा ~ (4059574 } (पक छ) न.ऊ.5.6% (004 कदन कछ ध) ी८ ५७ 9 9150 नान्य 0८140 ;-- ^~ 0 पतक्रेतु यदावरक्राऽनामिकालवङ्गुिभवेत्‌ 4 (५ ५४४ तिपताकस्ष ववज्ञयः कम चाद वनक्रधत्त (+. 9--=. 21). ८07 .910/4८90 ८/१ 9.7 -- 10 ०७ग/ 0 ०1115 नण 5.8 (7.500.855; --- (माद्गल्यद्रव्याणां स्यः (ऊ. 29)

3. 7340915 (करतैरीुम्वः = ०.5.052 27 नपन्य 001) 0८। काक ` स्षनाकरनिरः चुनि र. कीलो, 6040 नन्ता ववीन्य (| 02८ ८/१ (ङ 2 ८.4. (धा ०५८1८८75 52 छु (कत. (८0 ° कन्व ८1 :--

4 90655 96.6.00 = (भषेचन्द्र ण्यः किण्व) क़ ८,49८2 शकतो जीवनक चणका (0000799 (4० ०1" ०00 ८१८ कना 75 9/0. कत 0.90 न0 नन्छा ¢ 01 1417;--

यस्थार्‌ रस्तु विनताः सहाङ्पुषटेन चापरम्‌

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सोऽधचन्दरहि विज्ञेयः करः कमस्य वक्ष्यते | „86 ८060८ .90 50/7७10----10 5, 55/ह छग & 7८" / , :- -

श्रिरेखा =-37

6. भा ८० (अराला भुमका) -धगारा८५. 09 कीः 6८/06 कणा कका) /( 9.0 (@/58@ (100 ७92 @ऽरना+ 00.5.57 ८0.0/10:00.5 कणा @ सलः =. तपुतमा 2050508 नन्वा (0८410 :

¢ (१ आद्या धतुरुता काया ुशितोऽर्पु्टकस्तथा 4 ध. पा मन्नात्वरबारुता धरारङ्गुखयस्स्म्रताः || >-39 ८7,810/190 2८7 ०८6 --- णक णकिगे क. = (204 5.5 ना व्ण ककि "0 नन्ककं उ0८१८ 9 ८, 000 न्क 1/7: 7८ ०/६.

केशानां संगरहय्कयो ०41 खेदस्य चापनयने =.41

6

6. ऊक जका (शुकतुण्डः-- कमणि (छ) =#2ण्ण 80 नण कोर (6८2 @/6/7८/7} 210१. गीति = सादना ककर धुल = कवक न्फ! 1 शान्ा.2 21107 ¦ ----

[क [भाक अरारखस्य यदा वक्राऽनाषकालङ्गुलभवत्‌ ४४ (कन) शफ पएिण्डस्तु करः कमेचास्य (नवाधत्‌ =-46 4180८100 2017 547, का @0 55 चणक ७7८1. :-- आवाहने ०41

7. (गध (मुषि (की) क्निनेकलकीच्ा -पाष्यीकना 2. न्ना दनाक 49 @^ 1705.) ०90 कोकजरीन्त (९८०० = नि-1 कषठ क. 141 ८.76 452 (ध्य भाला. 01110; ~

अङ्पुदयो यस्य हस्तस्य तरपष्येऽग्रक्षखिताः | तासाघ्रपरचाद्गृष्ठः प्रेति संक्ञितः ।॥ =-48

८८7.2.10/1.9.0 2८175 .5-- (छ) कनक 57८. _ :-- प्रहारे >-49

8, क<0८८ (शिरम्‌ः-- ९. म, (८/0 ¢ 2300 90.5.75 55 7) ७८. ९.7 ® 010 दा 2 5८/11! 7० नख) निक 29950 शका. 2( 100 :-

अस्थेवतु यदायुः उध्वऽड्युषः प्रयुज्यते | हुस्तस्प्र शखरानाम तदज्चेयः प्रच्ाक्ताभः जऊ-50 ८0160194 401 9८ --55@ ~ (८०,ॐ ८५. १.111.171. सा! :-- तोमरशक्ति प्रमोक्षुमे ०61

9. सकः (कपित्थः --) > नित (क्या ८1 559 =^ वीव नण धक) कना 5१८4. कण छना छा तिकन्ा८ 7), 95. 305.5 80 ४८5८८ भ्ठ ©८440 :--

अस्यव शलरस्यस्य धुर्लऽङ्गुष्ठु नपहता)। यदा प्रदे्िना वक्रा कपित्थस्तदास्मृतः। =-52 1, कवक ' कन्ठ व्नातककव्मी सव्व 0८ कन. (2६5 11711 110 + 171 (०. 8,0.22 8 ? 11:98 (2८170 1@८8,--* ८८.971 2411 ~~~ च्छ (| ०02 ८.८ :--

प्राण अ.58

0)

10. =५-=0,४05८; (खटकामुखम्‌) (छ) 54 ०० ८-0व्य (4 5८६) 51.55 11111, (25. 9} ८9 ०9०99५0 कन्म 00 @9 = नना 6/5 111 11.11 95८8 9 =^ (40 90 ला न्य 0८107 :-

उस्थिप्तयक्रातु यदाऽनामिकरा सकनीयसी | ~ अस्यैव कपित्थस्य तष्दाऽपो खटकाश्चुखः ।॥ =-84 17.010. 040 ८--- कना छप - (छ कल -- " (८) 6५1 उद्ना (04.८4 ८1.2० नी + ¢ \ छत्र आदशर =-56

11. #-७ ® (४०८ (सुचीमुखम्‌--2 9 (५/८) =(--ा 2200 911.5;5 6.59 (©, 10) छना ०7८4. क00 2 ८-4०9-८7 82 नण 8२ ८क 20 9४ 5८8 नश्य 4 @०८1४1॥ :--

भः ^ खटक्राख्ये यदाहस्ते तजनी सप्रसारिता हस्तस्छूचीमुखो नाम तदाह्ञेयः प्रयोक्तु भिः =-58 107 910८,000 017७084 क्विनं 77 ° मच्छ : -- . कोऽसाविति निदेश .... =-61

12. 455 ०८2 (पद्चकोशचः न्य (८०४4१ 50८0500) ०90 करना @2015००9019 190. का भन्न न्यदा कछ -छाज्णीडऊग्रा = 57450८05 ८0279 कानि व्या ८.72 मध (540 20०८0 क्ता 01/40 ;---

यस्याङ्गुरयस्तु पिरलाः सहाङ्शुदेन श्चिताः | | (५ र््वाह्यसंगवाग्राश्च समभवेत्पश्चकोश्कः =~-74 (0760, ८44 -- ०० ४८८1८6८8 = सकनम 1८2८ 166८0 (९/8 ०0८. ०० दला 1117111 1077 011 = > कष : --

(0 # 1 ¢

विखकपित्थफरानां अरहण-ङचद धनश्च नारणाप्‌ू =-75

19. 7८114 कठ (स्धरिरः-- ® ® ८7८८ (वीक (क) लकणन्ण 5005४ कका कना ककः) ९-नाना श्न (ठ ८4/0/":८ 4. 0८190 2907, (0/0 @9.व 6 2 © 06115 कतल 31111८८ 760) 50 ना 1८ &ेठ@० कका 2८1५. :-- (६

[च ' अद्गुरयस्सहिताः सवाः; सहादङ्गृष्ठन यस्यतु (क ¢ तथां निभम्रतटश्चव तु सपाल्चरःकरः | =-78 10790८4० (4८.052 ८0 ८8(0०्न' ७, 445 74 ; -*

,... ,,, भुजग गतौ 19

1

(04.901140 (2८.११ ०1४ ,कन्ण (0 (का 2 कोक १८१८ - ¦ --+ गेधंश्रये चेव =-101 21. ०६.४०८? (संदंश; @ ८,11.521 175 दज क5 5४) न्ना 3090. 5:56 (©. 5) 9. ® 0 504 ८905 (7 सःज्ीश्य न्नी कनी (कं हक, ९. तार्च्छक (क 4896.5 551 9 =9 5/0 ०१2... शत्य. (७८7 :-- # ® =. तजन्यजुष्सदशो हयरालस्य यथासवेत्‌ | आशरग्रतरपध्यथ संदश इति स्तः =-104 किक (न्या कीक 2 :--1. = 6४55 52 (ग्र .कन्यी ) 2, (००.८.55 = (सुखज = (‰/ र.56,क00 = (८0 सनकं क्क 1८/47, } 3. (07235 ०४.51० :2 (पाश्मगतं ^केक मदमा (जा ८९.) ८07.901119० 2८17662 ~~ नृ कव ०१६० ०.2: --- (411 1268 5 >> -- 051 0.5 कन क्िक्जकद््ा८८९-; -- पुष्पाचचय ग्रथने =>-106 (दकष 968८25८0 ° 90, ककन ~ (र्कार निक.21 कक ;-- वर्ति शलाकादि पूरणं चेव 11 ८072 नणक(0य2 छर) का 471" ८: -- यज्ञोपर्रीत 1११.१। 18.11, ऊ- ] 04 22. खन (युकृखम्‌ 0८044.9) मनन ववी नकी न्मी @8 न्त व्वा का (मि न्धा वव्र 21/75 का (द क22८11/1"@, 2/0 णाक @. 9.7 र/52.2 ((८ कुना ८2" व्यः (2८.100 --- समानताग्रास्सहिताः यस्याङ्कस्यो भवन्ति हि ऊर्वं हंसमरुखस्येव मबेन्पुहूरुक।! करः =-111 ८1.80८ 1900 -- कप्त) = (ककत्ीपणन्ना दे 501... :-- पश्ोत्परशङ्खलरूपणेचेव =-119 23. = श्यस्णा 7८0 (उ्णैनाम्‌ः नेग) 151०2 व्ाक 0 30,5.5.55 (25. 198} व्वीनक्का किन्न (०८- चकष नैक शमदा 6८/८0 क्क्व (0८1. १.-- पद्मकरा हस्त ङ्गगुर्यः कशता यदा ¢ उणेनाभस्स भिज्ञेयः केशचोयं प्ररीदपु =-114

#

19

८7.80,19 2५17548 -- कक 14 (तिक 0.56) = (कन०८- ०0111. रिक्छककक्णान 71" ८. 1 --

शिरःकण्डूयने इष्व्याधि भिरूपणे =-115 2१. 57:72 (@८..2 (ताम्रच्ुडः (१८6) 529 0.20 (0/1 9.7.210 „वा ग्िकन। (३576. ना. वकवत का © का (000 ०9 0णकनो ९-भाकान्दी व्ण = ८16 ८1 ' 6०1 केक. ८..00 नक छुं " ८८ ८-८-19 = मन्य (०८,८,0: -- 9.9 1४ > ११ मन्यपाङ्गुष्ठप्रदसा वक्राचतवे प्रद्राना | शेप तरसे कव्ये ता्रचृडे कराङ्गुली =-116 ८0640119 (८75४ --- (य॒ (66न्चऊमा .(ज/0/41100 9 ८-८-41 ८118 (4८46४0७: ~+

बृललप - =-1]18 5१८60 (क^-८ ८. काक नाकः दका गणा, ~न 6८0 0८40 चिन चकते. 040 8८4 कव) 052 (छ 5017 (खो ८9 भन्ठः 0८/01 : -- 1 ~ अङ्गुख्यस्पहिता वक्रा उपयहगुष्टपीडिताः | प्रसारिता कनिष्ठा ता्रचूडः फरर्स्तः =-119 89/97/1190 ९4/72 --- .@1 ८2 १०८४ ~ कक ८2 (0 60009 कजद्रमा कं =04.-1-. :-- $ $ रत ससं रक्ष करेणेकेन योजयेत्‌ >-120 हक @िक (च्छं (कछ नथा 903 टना (2,2००.0९ न्ना) @7-41 जाक 605 ® ® 057००114. कच्छ 0न्म, «५4. ८१४ कका द्ववना परि 20 मणक 9 दः मीहि 1051... 9८2 (00.401 ८.0 कजनमकि 2 रिठा न्ण्निन्ान्म, 9० जा कोन चणा १.0 1 1.12. (9अ१ 0७८11 198. ॐ:---

26 = =-905 ^ / 91415 सूधैपत्ताकप्‌ } ८/1.&50 504 } 11 &ॐ (@ढ, 2) क्रि ०० 1/8 सदमाक०८ 1८.१८.८7 9,5.00. 40.55 ८८. ¶छ(2 भा च्ठा.2 0८100; ---

त्रिपताक कनिष्ठाचेत्‌ वक्रिताञ्धपताकिका ` ८0८9० ५1७६ (व ना" न्णा८॥च्छ. 7८" ;---

उभयोरिति वाचके,

14

26. ८८५० 0०५5५ (मयुरः ८०95) 5 (० 0 5/5 ® (0०, 8) @07० ००.८५ 0८/09 ०.2८ = कन्न 207 9८.-7व्ण -2/ स्म 5२८ ८.१८८.060 „5 (छं ८49 02.3८9 कव्य @# 0०८1010 7 --

असित (कतरी सखे) नामिकाङ्छे शििचान्याः प्रतारिताः (न (भ) मयुरहस्तः कथितः करटाकावचध्ृणः 4910८19० (40/75 -- कश तकण ८1 61055609 ०,859, 50 12 ०5065 :-- नेत्रोदक सश्च शाच्रवादे ०८१८5 20 जण कका (दर 0 = --5 }) 13 ` --~ (1) 9 ® (अज्ञलि; @"०4005०) @ च्छ ® क्ण 5८८0 (नक कणा का का ऊतिकब्या (रि 9 कक कजात कका 50 छु = ठन शक्ना 0८.101 ;-- | पताकाभ्यान्तु हस्ताभ्यां संश्टेषादज्ञारेः स्मृत; =-122 07.60.90 20.752 @.कन्५क्णतरभा) (खु, > एकिकक्ना = (@0कमा ८05४0 : -- देवतानां गुरूणां पित्राणाश्चाभिवादने 122 (2) /75 0 5४.52 (कपोतः 1) @ न्क @ व्ण नीका ८/2 क्रा कष्य 202८ न्या 55505, पलु =5 ८105805८ ककन / 01107; -- उभाम्यापपि हस्ताभ्यां अन्योन्यं षाश्चमेग्रहात्‌। ४५ हस्तः कपोतकोनाम कपचास्य निब्रोधत =-124 ८07 60८1197 20175८7 -- 145. : -- भये ... .... =-195 (3) १5 ०८ -0 ०४.5८४ (कर्कट; शन्का नि) @छन्णडरण्णीन्म कीर छ्‌

(2 गग ०1८1 ८.75 5268 5.5८. 0 50.515 त्ठ 0८144; ~ अदङ्गुस्यो यख हस्तख हन्षोन्यान्तरनिःखताः | 0 [ करकट इति ज्ञेयः करः कपच कथ्यते ज-1ध

८7.0८.197 2८175:2 --- छा @2@ 20140 = 04845) = (22/49 0.51८*८ वन कक 0८८ -

एुपरोर्थित विजुंमणे ... ..- =-1%8

(4) अ४०००ॐॐ (सरितम्‌ = ०४०८००० (105 6597 ८111024 1069 क्म 59 51 न्म + (ठ 295 51 ०३८५ 14. (-- 7) = (@ खण @ काङजदमा ५/2

४.

16

न्धना 0010 = (%00005605 प्रका) ०००, आ<(ि कणन, ८० 5८ कदन = करल्न न्म ९८06) छन्ना , क्क (2८ ~क ८155८०0 ९-017.5.6 च्छ ततद तिक कव, तख नण्नपनणनि रनक कामन ०८107: -- ५, $ [+ मणि्ंधन विन्यस्ता वरौ वधैमानकौ उत्तानो बामपाश्चखो खस्तिकः परिकीतितः =-199 (१.20८.100 000क(2-- नण नण केर = (०,5@ो न.7-4064 व्ल छा (00.5.52 व्@ (८17 @69, = ,्िन्छकजना ५७८० ८0०5५८2 ४1/11 नण 509 ०५05. 0 (09 न्यक्वा दैना ८८8 0८"! ०97८; सखस्तिक विच्युतिकरणात्‌ दिशो घनाः बनं सघ्चुदराश्च ०108 (8) =< 75.5८00/550 (कटकवधमानकप्‌ ०८ 5८2० ¬; ८०0 न्या 5८0--०90 क) 7559) (त व्यार क्का ८/2 नधना कनो पनी 9८-40 क@ष्या क्म & ८० नण (5 ८/4. कक. कप 9. 1.7.13. 6107.5.5 ८0055८0 हा न्द 4 (9८107; --- कटकः कटकेन्यस्तः कटक्रावधैमानकः ¦ =-181 ८०7.5/0८1.9.0 (८/7 52--- 2:00 0 क्रमा 5८06 ॐ575(ख ८2८10. 11.50 कना 5 0.570.855 : -- प्रणामकरणे „. .. (6) 5 ०5८2 (उत्सङ्गम्‌ ८८4} श्न क्ष न्क ८2 ना छन (८०.४८1 ८८७ = धवला = (00.6.निन्छ ०८ (1) कदि कनी (2८०6) ®न्म (छ दकव न्क ८८८ (164 च्म" 1 7 =9/.52 (क ९. ०25८7 ता 42 (9: 1017 -- ~~ © © अरलौतु विषयस्तो उत्तानावृष्वैमानतौ | उस्सङ्घ ? इति विज्ञेयः स्पशश्य ग्रहणेकरः =-159

८०0, ९,92 2८/75/9310 २-स्थन 7 ऊक ८1८ 01 - (9०.52 (ख,

(1) @८=* 30००5592 खट कथवधैमानकम्‌ ग्म ¢ (0८८०१०७ @क किक, 1 (रिव 50 क७की 442 <८- 97 (८क (20.5.97 .5010( (= न्क 100) = (०न्गरीक८^ कष्य 2८०5 (० ययी. (@ 1 5(@ 02414. ~ 8 1 1.1 ८1 5(छ ८21 +. अत वयन्प्ाज0वाणा © नन्दा कणदकक णोक० 9 ०2८८4" (नी ना.ॐ:--

खरकामुखयोः पण्यो; खस्तिके मणिबन्धके 1 भन्योन्यामिमुखत्येवा खट कावर्धमानकः =, >-208

16 स्पशश्य ग्रहणे करः

(7) %०,5(8 (निषधः-- ०८" ८.0न्म) {@.क 0०० :-- (0.56 कवचक व्कछनो प्तन्ा(्ि८ कन्या ८2/20 कन्य धीन्मा |ध.5@5 न्क ॐ। 111८. क्न्य न्ड, ६,1.11. 5039८11 11 -(- 750 =/5/2(8) (5८0 * नाष्य 01100;

५१७ 9 गृहीत्वा वापहस्तेन कूपराभ्यन्तरे युजम्‌ दक्षिणश्ापि बामश्य कूरषराभ्यान्तरेन्यसेत्‌ =-134 सचापि दक्षिणोदस्तः सम्यद्ुष्टकृतो भवेत्‌ इत्येष निषधो हस्तः कर्मैचास्य निबोधत ®-185

07.607८/19.7 30105८0 2, = सगत कन्म = -धछव्ान्याः थन (०111 किनका ७0८ @ ०७.22); --

गवं सौषवं .... ... ... =-186

@7 श्ण ८7 = च्णन्छक--- तच्छा ककरी @८2 20८769८ (१0 90.07 9001.5 „519 भो ना-दलछ (०००१८11 16 2 एष 5८०7. ०००५ 9८ ८1--(- 0 -9%5.2(@ 2 92.5८2 सनका 01/07; --

अथवा--ज्ञेयोपै निषधोनाम ह॑सपक्षौ परागुती =-15प ८८4,8171 "1.0 30/7८ --- धन्या छम 7८9 ९५,४.2); --

जारूवातायनादीनां = .... ,.. = 15

(8) 5752 (दोरः-- श्यनः) (वया कदणा कष्या वका कि न्णकदना ८1 11.50 = (कद्0ककक ]) (00.56 4 2010 0,5द5०9८. ८-0 =9,5,( (कत ०0८2" न्ा ©; --

अंसौ प्रशिथिलोक्तो पताकौ प्रविकरुषितौ | यदा भवेतां करणे (दोर इति संक्नितः ~=-188

८901194 ८178512 ~ कव८2 (0 ककड, = (कन्व 501"

०522: --

विषाद्‌ मूषित .... .... „~ 189

क.

9 |

9. (०८ +^-2 (पुष्पपुदप्‌ (कलकय क्णन्णठ(ठ)८8 = निकणष्छ छि) विता कक नी. 102 07८14. (20 अन्न ©, 19) (059०० ५८-व्) व्कतीन्या ककमा (0.00 क्कडड(छमो कक ककदना @८-4.@)0८4075 भकग न्म ५८/८"८.-769 952 (ल (मु 1- कन्म 2 0८/07; --

यस्तु सर्परिराः प्रोक्तस्तस्याङ्खार निरन्तरः (४ [` हितीयः पश्च शिष्टः तु पुष्पपुटःस्मृतः॥ =-140. नि (2८175८6 {-- 1 ९८/८2 (05 ०८4 05.55 ® ङक 91.5०9 ~~~ पष्प भक्ष्याणि अनेक नानािधानि युक्तेन ग्राह्याणि उपनेयानि ।॥ =-141.

10, (5048 (मकरः मका८हन्य) (्रिठन्ी रि तकया ८/2 50. ५.०5 8८4, रिव 1/2 ९-नानाषन्कॐ @ (0 45075६८. दन्न 2८05 कष्ठ 075 >, काऊ का क्ण © 0८17 रक्कः ८८००० रनक 95. (8 ८० 9.7 200 9४.5८8 क्क (2/1 1110 ;--

[क पताके त॒ यदा हस्ता वृष्वाङ्गुष्ठा वधोष्ुखौ उपयुपरि चिन्यस्तौ तदा सक्र करः | =-149, ८90८9०07 5८1 -- (८05, 8 (ध0कनीककमकद = ८८:

नक्र मकर पर्स्यानां ... =-148.

11, ०8 ७5८६ (गजदन्तः ५1१ छग पवन्छाः क56.504}) (धित सा क्क नण 11188 (00 निगय ना (809) (00८0 कना = & 2८9 0500(ख 4 ८14. ८०4०८८१1 ~ ८-1-52 (खु ,56,5८2 कान्य (0८/07 ;---

करूषं राधोऽश्िती हस्तो यद्‌ास्तां सर्परीर्कौ

गजदन्तस्स विज्ञेयः कर्मचास्य निषोधत =-144. ८7.9.01 110 0017542: -- 9 किक ०ान्य == ८17.2. 58 5.5 छा (2 ०५०8 "८ ;-- भति भारयोगेच =, 146.

19. 9९205 5" (अवदहित्थः (^दयो( णका (00.5.55) (2.04 @ न्मा ८/८ ऊक, (00 निन्य 75 (क.ठक.छन्क 22, ©} कण 0िकवन्काि नुक (0101 द(खके स८०७ ९-८/75.8, = न्रा के.) केन्य नकाव्या दा भनि काल. क्ण कादकान्का0 60075 रिवम ८2 = @5य 0८ कन्य. & ((०5८4 ०० 0/5 4०८।८॥८.८- 0) 950. =/०1201.5;540° गन्ता 0८007, |

18 ..

शुकतुण्डौ करौ कृत्वा वक्षस्यभिद्ठखाशवितौ शनेरधोषखा विद्धौ सोऽवहित्थ इति स्प्रत; >=-146, 14781८19 7 ७८2; 9/5 5045 > ००71" :--~

उत्कण्ठते ,,, ,„, ऊ, 14},

19. ०75८0149 (बुधैमानः ०90 5.901590८-- 569) ॐअ) (८ (कना 0०४5 = (ॐ,४न्0न्क्ड 06, 99) (भाक = शक्वव्छक र0िकान्छा( 19.55 (2256 (0/6, 9} (10.5.80. - कणः 0.1 (06007. कफम क्षकना 76) ०2/90 कना छं क॥" (04 5 506) 959. ०7.5.85 ८० ब्ग ८9 नन्त 2 0/ 100;

रस्तु यद्‌ हस्तः कपिरथ परिष्टितः वधंमानस्स विज्ञेयः कमेचास्य निबोधत =-148. ८07.901/9. ८1750; (न्य (०कनीन्या = च्ककक्छ८। (० ०कन्ता (१.८ ८1905 557८-८. :-- संग्रहपरिमरदौ 149.

@.8@ 1420077 © ~~~ र. व्ण © 11117. 209८०८18 (90590 क्क 05, ‰0}) (८० को. ५।८.-त्वा, ® ना ना छन्छो 5 ८07 (20505

9 (स^ = व्क. 76 =50 (८2 = कनििकतणान्म 2 नन्या |

0८ 10.0, विज्ञेयो वर्धमानस्तु हंसपक्षौ पराञ्जुखा =-140. ८.90८.414 475८0 --क्न्म न्य क) (णऊ न्क का 90011155 7 ८--८-:--

जालवातायनादोनां प्रयोक्तव्यो विषाटने 150.

8. @6४ काकण, काढ (हस्तकरणम्‌ ०००० परण. 084 ८2/05}: --

1, - ०5८8 (अनिष्ठितं = (ण.9 (दकम 200 = कदन ७८५ ८॥८-५-क) छग का८4 नवह (दक्वा ढव्य िकः ८10. व्वा (8/0 ४-८-11. @का न्क @*०@ 55; ~~

आवि्यन्ते यदाऽङ्कुल्यः तर्जन्या्या यथा क्रमम्‌ अभ्यन्तरेण करणं तद वेष्टित्ुच्यतते =-200.

¢. “06 = रभुकिनडा ४.5९ ०ब्‌४4.51 (परिवेष्टितं ॐ, व्पक्ना ड७८।।.८-.क, उद्रषटित्‌ ०.८1 @ कणा संक९।८१८१ (5) "छुना का".८. 95 (न्य ऊष्म 056०. ८/4. क्णडव्छकञ्रा 2059 ८62. ०९०१0 डा कवा 021 055; --

19

¢ द्ेष्यन्ते यदाऽङ्गुट्यः तर्जन्यायाबदिरंखाः क्रमश्च; करणं विग्राः तदुदेष्टितष्ठच्यते =-201. 3, -&>7.5.6.502 (धावत्तितम्‌ ८95 ०८८८१८2), = =0 न>) (0 ०/7 5.9/5/2 (व्यावर्तितम्‌ एत्य छी रङः 6१ 541"।८ /५ 49) ऊण 99.06 ८,161.1 0550.2000444. व्क कोका (9/2 ने 1 10८2 तान्वा 8०05०; आवतेन्ते कनिष्ठाया द्यङ्गु्योऽभ्यन्तरेणतु यत्तु क्रमेण करणं तद्या वर्वितपरुच्यतते >-209. 4, 110०5 @,5 (षरिवरतितम्‌ 6 @८119 59०2०८८५" - क्व) ऊन (9 ०07 (कन्यना 05.41 (क चवण कोका 16299 = ८844. @००८०१८1८1०८ ७50 ®> @@&८/7.55० :--

उद्वतन्ते कनिष्ठाधा बाद्यश्चः क्रमशो यदा अङ्गुल्यः करणं विग्राः तदुक्तं परिवतितम्‌ = =-205.

4 (ककमा छु व्क १---

1, ०.5८ - 45८2 (उद्धद्ितम्‌ ®> =9 6/5 = ९८।८। का) (४0 क्ण 7 6076) न्य (क नि 2०८1 (49045 = 26.59 ८/1/ ॐ: --

स्थिर्वा पादतरग्रेण पश्णिरभूमौ निपाद्यते यस्थ पादस्य करणे भवेदुदढड़तस्तुसः -+-10 =-42. ‰. >८०८४ (समम्‌ ०४०८1०५ ८० न्ग 82) ०००४ १०५८०7७ = @(षिका 8.0 ¬.ॐ:-- स्वभावरचिते भूमौ सपस्थानेच यो भवेत्‌ समः पादस्य विज्ञेयः स्वमावाभिनयाश्रयः | -+-10 ०-44. 8. 525०० ®० = (अग्रत स्वरः (कन्यना > 976 5८-11८.+ क) (क, 575 51111" ®; 0८19०210 = (०2059. कोकूछ८8 = नपा कंप ८16 कक ८10,5.5.भिन्य 90८ = 505@ गण्ड भन्दा ०८५.

उरिक्षप्ातुभवेत्पाष्णिः अश्ितोऽङ्गुष्टुफस्तथा अङ्ल्यश्चाश्चितास्सवा, पादोऽग्रतरु सश्र; =>-46.

20

4, =@5ॐ.5८ (अचितम्‌ शकना ७०८५८८१८ क) (@,9515 ५/6 (४८6 ना, = (कव्मत्यक्चा 506) ता ०८५८1५9 ०0552 क्का ०1८८-८ 1759 452. (~) @ कन 5८2 न्न 0८101; --

पाष्णियैस्याञ्चिता भूमौ उधमग्रतरं तथा अद्गुरयशाितास्सवाः सपादस्स्वितर्स्मृतः ।॥ >-48.

5, (@न्क.5"2 (कुक्लितम्‌ (ल ०५८१८1८. (5) (क) 6 & 5८५८८. 0 ना डनम 59८4110 2002 (ल ८९०५1८८ 769) 95. (कछ 952 शाका 2८1411 : ~~

उरिकषप्तायस्य पाष्णिःस्यात्‌ अङ्गुस्यः कुशितास्तथा तथा इुश्चितमध्यश्च सपादः कुशितः स्यतः >-60.

6, @४-७6८,58 (सुत्चीपोद्‌; श्य (८ केव (न्य 8 का - ८17,5/9) 2८.518 (21/20 $ (411 6 8 ४८96 = 65 का ०५०9. (ठ) 650 @9,5 ता ८1 0८/0क06वन्य = -(रान्यी0 06 = किच्व 05 = =5८0 ०४58 82८0.5८2 = कष्या (०८1८.7,

उस््षिप्रातु भवेप्राष्णि। अद्गुष्ग्रेण संस्थिता वामशवैव स्वमावस्थः प्रर्चीपादः प्रकीवितः =£},

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सनु पतल (सपद 5 ५"

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४२

कन

श्रीः चृत्यटक्चषणसदहितं

| (५ गतमााचन्दमहचछन्यम्‌ श्रीगणेश्चाय नमः श्रीसरस्वत्यै नमः मेधेमदुरमबरं बनथुवः इयापास्तमारदुभेः नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिप राधे गृहं प्रापय | हत्थं नन्दनिदेशचतश्ाङितसोः प्रल्यङ्ुजहुमं राधामाधवयोजयन्ति यथुनाद्रूखे रहः केरयः टीका मेषैभैदुर--तिथक्परषारितशनेः ऊष्वमिक्िताधस्वरपताकाभ्यामू अंबरं स्वस्तिकीकृरोभ्वविस्तारित पताकाम्याम्‌ वनशुवः--चरदध्गत तरिपतताकाभ्यां विच्युतस्वसितिकेन) -पुनस्तर- दशिंतपताकेन इथामास्तमालदुमैः--रष्वैविस्तारित चर्पदशेन, चरुदूध्वगत त्रिपतकाभ्याम्‌ | नक्त-स्कंधानतेन शिरसा यङ्रुदण्या | भरः-- विधुतेन चिरा वरस्तदण्याच | अय- प्रस्तर पुरदेश्चद धित पतान त्वं ~ पूरः प्रसारितो ््व॑तरुपताकेन एव--ऊभ्रतलख्गरशीरेण

तत्‌--भावतंनेन !

इम--उप्नाधस्तल चतुस्ताखान्तरितार्धचन्द्राभ्याम्‌

राधे-शिरोदेशादाकषितांचरुखटकाध्चुखेन परव्त्तेन शिरसा

गृहं--उध्वेमिलिताग्रमगशीषभ्याम्‌

प्ापय--वामपाश्चीत्तरथगगतोरध्वतल पतिन अथवा वामदेशातिर्थ- मातोध्वमरगरीरषेण

इत्थ -अधोधुखदक्षमृगशीषेण

नद--बामो मोभुद्ेन दक्षिण रर्वपरुखप्रि्ठुचेन

मिददातः- युखगतेन हसास्येन

वछितथोः-हस्तधत कृष्णकरकनिष्टिकया राधाषिलास्षन विकासो गमनादिस्यात्‌ चेष्टश्िषटांगया इता

प्रति--प्रत्यग्दर्धितष्चचीदुषेन

अभध्व-- वापदेशात्तिथगगतोध्यैतलस्गक्ेण अथवा अधांगुलि पुरःप्रसारिति चरभरिपताकेन

करुज- चरष्टतोकरोष्वंसपानीत मिलितथुपरमर्शीपोम्यपू

हुमे--चद्ुद्भ्वेगतत्निपताकाभ्याम्‌

राधा--शियेदेशादाकर्षितांचरुखटकाष्खेन परादृ्तेन शिरसा

माधव -पेष्णवखानकेन वसधारणघुद्रथा

जयन्ति -- उद्रततहस्तकेन

यसुना--भ्राभितोध्नपर्चापख(चल्दधःसथानीत त्रिपताकेन तेनैष पुरःप्रारितेन

करूले- चलत्पुरःप्रसारित त्रिपताकाञ्णां अथवा उस्षंगेन

रदः उर्णवुख ख्चीएखेन

केलयः --मिटितां गुलितलत्रिपताकाभ्यां अथवा उत्संगेन `

[कि 1 +

४.

वाग्देवता चरित चित्रित चित्त सक्ना पञ्मावती चरण चारण चक्रवर्ती | भरी ्रासुदेव रतिकेलि कथासमेतं एतं करोति जयदेवकचिः प्रबन्धम्‌ २॥ रीका | वाग्देवता--अधरासपुरोगतदहंसाखयेन दिरसथांजकिना चरित-- विस्तारितो ध्वरतर पताकेन चिचित--लोरित संदंरेन | वचित्त--हृद तपदशेन सद्या - उर्धव॑मिरित मगर्षीषाभ्याम्‌ | पद्यावती--स्वस्तिकीटृतपञ्मकोत्ाभ्याप्‌ | चरण--चरणद दित पताकेन चारण-दंसगत्या | चक्रव्ती--भ्रामितोधव्॑ुख सुचीधुखेन ! श्रीवासुदेव--वेष्णवश्थानकेन श्चधारणशुद्रया रतिकेलि--उत्सगेनाधरसमीये ऊर््ाधोष्ुखमिलितधुुलाभ्याम्‌ कथा - अधरात्पुरोगत हंसास्येन | समेतं- मिलित परचाखाभ्यम्‌

एतं--अर्धोगुलि परस्तलपताकेन)

करोति-अधोष्चखर्हसास्याभ्याम्‌ |

जयदवकविः- लराटखांजरिना

प्रयधं -- अधरालपुरोगत हंसरास्यन २॥

1

यदि हरिसरणे सरसं मनो यदि विलासकथामु इतहसम्‌ धुरफोमलकान्तपद्‌वलि श्रुणु तदा जयदेव सरलतीम्‌ यदि--व्यावतैनेन हरि-वेष्णवखानकन वशधारणमयुद्रया स्मरणे--दृ्ारित सदशेन सरस--हृरपरितिंत चतुरेण मनः--हृदत सदशेन यदि-- व्याव्रतेनेन विखासकथासु-निहचितेन शिरसा समपादचाया | तुदं -हद्रत विकसित पङ्केन रोितालपह्मेन मधुर--क्णंगत हंसासन कामल-रोलितांयुष् हसाखेन कान्त-लोलित संद॑तेन पदावरछि-- अधसन्पुरोगत हंसाखेन श्रणु--कर्णगतक्च चीुखेन तदा--व्यावतिततिर्यगृर््वददित घवीष्खेन जयदेव--लराटसखांजलिना सरस्वर्ती--अधरात्पुरोगत हंसेन ३॥ ब्रेदालुद्धरते जगनिषहते भूगोलदयुद्धिभ्रते

दैत्यं दारयते वरि छलयते कषत्रक्षथं इर्ते पौलस्त्यं जयते हरं करयते कारुण्यमातन्वते

म्ेच्छान्‌ मूयते दश्ाषतिते कृष्णाय तुभ्यं नमः वेदान्‌-- बिरलांगुलि प्रस्तर निङकचकेन

उद्धरते--शनेरर्वगतारपष्छमेन जगत्‌-रष्वैतरविस्तारित परताकाभ्याम्‌ निवदते-सधगतारपट्ेन ऊध्वंस्थितोष्वतरुपताकाभ्याम्‌ भूगो्छ--परस्तर भूदधिंतपताकेन ऊभ्वैुख कपोतेन उटि-भ्रत-- ऊष्वैस्थितोष्पतल पताकाम्याम्‌ | दैलयं-- युखसमपेमिषिततरो्णनामाभ्पाम्‌ दारयते-रेचित हस्तफेन वर्ठि-उर्व॑पुखभमित द्रर्चािखेन गजदन्तवराह्वास्फालित सर्पश्चपिण। छटखयते--परिवतितारूपग्नेन क्ष्न-प्रलाङीढस्थानकेन परःप्रसारितयु्वा कणादृटखटकाशुखेन। क्षयं--वापस्कन्धदेशात्तियगधोग ताधस्तलपतामेन कु्चते-अधोध्रुख ईसाखेन पीलस्त्य-हनोरधावरतिंताठपष्छेवेन पुरस्तर विरसागुलि पताकाम्या्‌। जयते--उद्रेशितारपह्ेन हटट॑करुयते--स्फधस्थितारारेन कारण्यं --करुणया दृश्या हस्स्थतरहपतपक्षेन : आतन्वते--बिस्तारितोध्वंतरपताकाभ्याम्‌ म्लेच्छान्‌--कर्णाधोद रि तसेदभेन प्रस्तरे लोलितपतपकिन मूकयते--अचितेन शिरसा दोरहस्तकेन दराक्रति--परस्तर विरलांगुकि पताकास्यामर्‌ शनैरगदरित संदंशाभ्याप्र्‌ च। करते --अधोध्रख हंसाखेन क्षणाय --वैष्णवस्थानकेन वद्चधारणधुद्रया | तुभ्यं-नमःपुरःप्रसारितपताकेन रलारस्थांजटिनावधृतेन हिरसा॥

अष्रपदी

प्रखयप्रयोधिजलटे धृतवानसि वेदं विदहितकवदहिच्न चरिन्नरमसखेदम्‌ केशव धृतमीनदारीर जय जगदाहाहरे ।॥ १॥

प्रटय ~ पताकोपरिमर्दित पताकेन गगनदश्या च।

पयोधिजलशे-अधः खरस्तिकीटरत विच्युताष्यतल पताक्राभ्यागर

धूतवानसि ~ अधोदेज्नादुद्धतगुष्टिना वेदं पुरस्तर निङकुंचफेन विदहित--शरनैरधस्तलीडृतपतकेन वहिच्र~ चारितांुष्टकर प्रपतारित पृष्पपुटेन व्वरिन्ं--प्रसारितोध्यैतर पताकेन अखेदं--हृद्तपताकेन अद्रुया द्या केदाव-केशबन्धेन | धूत--आषत॑नेन कृतदुष्टिना मीनहारीर-- मकरहस्तक्रन जय~ उद्रत्त हस्तकेन जगदीश्ा-ठराटस्थांजलिना हरे-वैष्णवस्थानकेन १॥ क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति एषे घरणिघरणकिणचक्रगरिषठे केङहाव धुतकच्छपरूप जय० २॥ क्षितिः-अधोधुरि परोद शद्ित पताकेन अति-अवरष्टित फिचिद्ष्वगतपताकाम्याषर्‌ विपुरुतरे-विच्युत पिस्तार्ति खस्तिकेन

(त ~

~ ८.

~ ~

लव-पुरः प्रसारितोष्व॑तरपताकेन तिष्ठति पृष्टे-अधस्त्खछीकरत द्ुकतडोषरियुशिना धरणि-अ्पांयुरिपुरोदेश् दर्वितपताकेन धरण-ऊध्तलोष्वंस्थित पताकाभ्यापर्‌ किण-बद्ष्टिना क्र -भ्रापितस्वीयुखन गरि्ठे-अविषटित किचिदृष्येगत पत्ताकाभ्याम्‌ केदाव धृत-पूवंषत्‌ कच्छप-गुकतुडन २॥ वसति दहानदिखरे धरणी तव छपरा दरारिनिकरखककखेवनिमम्रा | केराच्रधरूत सूकर रूप जय० ३॥ वसति-शनैरधस्त्खीकृत पताकेन ददहानिखरे-युखरम्न कनिष्ठिका रिखरेण धरणी-अधगुलिपुरोदेल दित पुरस्तरपतक्रेन तव --पुरःप्रपारितोष्व॑तरपतकेन लप्रा - तिय॑डिमिलिताग्रतलष्चीगुखाभ्याम्‌

चारिनि--अर्धचरद्रेण।

करटक--मृगश्चीर्पण

` कटा--प्र्चाघखेन

इव--अ!चतैनेन

निमग्रा--अधोषठखाधोगतशहककेन

कैदाषेत्यादि पू०।

सुकररूप--ताभ्रचूडाभ्याम्‌ अथवा ुखरप्रकनिकाक्ेखरेणां

गदश्ितपदंशाभ्याम्‌ } अथवा प्रुरिमृद्रया | जय०-पूयै०

तव करकमलवरे नखमद्ध॒तश्युमं दलित दिरण्यकदिपुतलु श्रङ्कम्‌ | केराव धूत नरहरिरूप जय०

तव-पुरः प्रारितोध्व॑तरपतकिन कर-दरधितपताकेन कमल-कमख्वतेनया वरो-शनैरूष्वंगतारुपषटयेन अथवा आवतिंत फिंचिदु्वगत पतकिन। नसखं-- अंगुलि नखोपरिं बरितिांगुषठन अष्ुत-अद्ुतदृ्या श्ुंगं-ऊष्यस्थितमरगशीरषेण दलित-पीरद्टया रेचितहस्तकेन दिरण्यकरिपु-युखसमीपे उर््वाधस्तरीर्णनाभाभ्याम्‌ | तमु-अंगद्धित हंसपक्षेन श्ुंगं - प्रमरहस्तकेन केदावध्रत-पूषैवत्‌ नर-स्कन्धमूरखुदधितारपष्छेन हरि-खस्तिकीङृत पुरस्तरोणेनामाभ्याप्‌ रूप-पू॑वत्‌ | छलयसि विक्रमणे बटिमद्धतवामन पदनखनीरजानितजनपावन केदाव धत वामनरूप जय ५॥ छलटयसि--उदेष्टित पत्ताकेन .

9

क्‌

$

का =. 1 +.

५.

2

विक्रभणे-- विष्णुक्रान्तं करणेन

यदटि- उर्ण्वभ्रामित छचीधदेन बाहास्फलित सप॑शर्पेण अद्ुत--अद्भतं दृष्टया |

वामन--तालान्तरितोष्वाधसव ला्धचन्द्राभ्याम्‌

, पद--च्रण दर्धित पताकेन

नस--नखदिंतां गुन

नीर--उर्वस्थित सिथिलांगुख्यधस्तरपताकाभ्याम्‌ अथवा मकर हस्तेन

जनित--आवर्तित फिंचिद्श्वंगत पताकेन जन--विस्तारितोष्वतरुपताकास्याम्‌ पावन--सरध्वगस्थरारुपष्येन अथवा लङूरस्थांजकिमा केरावेतयादि पृषत्‌ ५॥

क्षिय रुधिरमये जगदपगतपापं

सपयसि पयसि राभित मवतापम्‌

केराव धृतश्रगुपतिरूप जय

क्षचिय-प्रत्यारीदस्थानकेन वामग्रसारितुष्टया कर्णाहृषटखटकागुखेन वरदया |

रुधिर--स्धदेशात्तियंगताधस्तकपताकेन कन्डदेशाचरुदधोगत त्रिपताफेन

मये-अधस्तलमिरित परोलोकित परताकाभ्यामर्‌ |

जगत्‌-विस्तारितोध्व॑तलपतकेन

अपगत-उदष्टितपतफेन

पापं-विधुतेन शिरसा षिष्ि्टंयुहि चलस्पताकाभ्याम्‌

स्नपथासि पयसि-लानरीत्यासपीपीभ्याम्‌ |

१० दाभित- शनैरधस्तर्छाष्त पतकिन भव-शरीरदर्ितोष्वगत ` सन्दंशाभ्याप्‌ ताप-विषुतेन शिरसा विष्िष्ंगुलि चरत्यताकाभ्याम्‌ अभितप्तया दृष्टया च| केशावेत्यादि-पूवधत्‌ & वितरसि दिक्चुरणे दिकपति कमनीयं ददामुखमौखिवलि रमणीयम्‌ | कराध धत रामद्ारीर जय० ७॥ वितरसि-अधोगुखमुहूरेन दिक्चु-- दिग्दित छचीयुखेन रणे-प्रल्यारीदस्थानक वामप्रसारितयुष्टि दक्षिणाङ्ृष्टखट कायुखेन दिक्पति-- दिग्दश्षित चीगुखेन पि शिखराम्याम्‌ कमनीयं - लोकत सन्द रेन दराश्ुख हनोरधोवरतितारुपह्येन विश्ठिशंगुरि पुरस्तरुपताकाभ्यां च| मौलि-रविचिच्छिरोरम्र परस्तर त्रिपताफाम्याम्‌ | थलि प्रतिदिश्‌ अधोश्चुख प्मकोशेन रमणीयं-- रोलितसन्दशेन केाव-पूषै० रामदारीर--अवधूतेन शिरश्पा कलाटस्थांजडिना ७॥ वह्‌ सिषपुषि विदहादं वसनं जलदाभं दहति नीत सिलितयक्चुनामम्‌ केदाव धृतदरुधररूप जय०

धहसि-अङ्गसमीपाधस्तरपताकाभ्याम्‌

#

1

११ वपुषि-अङ्गदश्षितर्सपक्षेण विदादे-रोलितघन्दशनेन वसन॑-पश्देशात्पुरः समानीत खटकामुखाभ्याम्‌ जटदा यं -तिर्थकपरसारित शनेरूध्वनताधत्तर पताकाभ्याष्‌ मिकिति सूचीष्ुखाभ्यग्र्‌ च| इख-ताम्रचूडेन हति -अधस्तलीकृत ताभ्रचूडन भत-विधुतेन रिरसा कातरया दृश्या च। भिलित-मिलितघ्चीध्रुखाम्यम्‌ | यसुना--उष्व्ुखभ्राप्रित सचीगुलाच्रुदयः सपानीति पिषताक्षेन चलपुरः प्रस्ारितेन तेनेव आभं-रोलितार्पदछयेन केदाव--पूवत्‌ इरखधररूप-स्क्धदितारलेन निन्द सियन्षविषेरहह श्रुतिजातम्‌ सदयहृदयदर्दित पदचातम्‌ | केदाचधुत बुद्धदारीर जयगदीदाहरे ९॥

निन्दसि-तअरधराद्विश्षिप्रसंदंेन

यन्ञ विधेः- दित मृगश्ीपेण पुरःकिचिरिकषप्न सिंहश्ुखेन अहह --धुतश्चिरसा

शति-निङ्कचकेन

जात--आचरतितेन कृतघुष्टया

सदय--हृस्समीपे शनेः अघस्तरीड्रेत पतकेन करुणया इष्टया |

१२

हदय--हूदत सन्दंशेन दर्दित--अपांगावतित त्रिपतकेन ति्ैगवलोकनेन परु-सृग्ीषेण | धात सधदे शात्तिर्थग्गताधस्तकपताकेन केदाव-पूवैवत्‌ | बुद्ध दारीर--स्तव्धपिरसा ।¦ ९॥ म्लेच्छनिवहनिधने कल्यसि करवां धूमकेतुमिव कमपि करारम्‌ | काव धृत कल्कि रारीर जय जगदीरा हरं १०॥

स्टेच्छ--कर्णद धितंदशेन प्ररस्तरुरो रित पताकेन

निवह ्ावर्तनेन $ृतपुष्टिना अथवा भ्रामितोश्वयुख सूचीष्ुखेन निधने--स्कंधदेशात्तिथैग्गताधस्तर पताकेन ] | करुयसि-पुष्टिना

करवाटं--चरुदृष्वांधोगत पतिन

धूमकेतुं चरदृध्वं घूचीुखेन

इव--आवतैनेन

कमपि-व्यावतिंत किंचिदु्वगत त्िपतकेन )

कराटखं-मयानक द्या |

केशाव-पूर्ववत्‌

कर्कि-मणिनन्धगत कतंसीशुखेन तुरङ्माचार्या

दारीर-अङ्गद धिंतांसपक्षेण १०

री जथदेवकवेरिदसुदितश्चुदारं श्रुणु सुखदं ह्ुभद भवसारम्‌ केराव धृत दहाविधरूप जय जगदीरशाहरे ११

./

१२

५२

श्रीः-शतैरष्वगतारुपष्येन

जयदेवकवेः-रुराटखांजकिना

हद॑-ऊर्वतरमरगश्ीर्वेण

उदितं-अधरास्पुरोगत ईसास्येन

उदार-रोहिताङूपष्टु्रेन

शुणु-क्णंख चीशखेन

सु खर्द-हद्तपताकेन यङरुदश्ट्या

दए भर्द-उदरत्तेन

भव-शतैरूष्वंगताङ्गद विषदं शम्याम्‌

सार-आवतनेन कृतयुष्टिना

केराव-पूषवत्‌

दद्ाविधरूप-परस्तरुविष्छि्ंयुलिपताकाभ्यम्‌ .

जयेत्यादि-पूवैवत्‌ ११॥ | पद्यापयोधरतदी परिरं भलग्र

कार्‌ मीरसुद्वितखुरा मधुसूदनस्य

व्यक्तानुरागमिव रेखदनङ्खेद स्वेदावुप्र मलुप्रूरयतु परियं वः १२॥

पद्या-विस्तारितोष्वैतरपताकाभ्याम्‌ रदानैरुध्वार्नातालपषटमेन करषिंवांचरखटकाथुखेन पराए़तेन शिरसा अथवा कमलवत नया उ््वमिलितम्रगीषाभ्याम्‌ हदिखस्तिकीतथुडका- भ्याम्‌

पयोधरतरी-खस्तिकीकृतप्मकोशाभ्याम्‌

परिरं भ-उत्सङ्गेन ।.

१४

टप्र-मिरितस्च्यग्राभ्यम्‌ |

कारमीर-अधोधुखनिष्पेषितहसास्येन

ुद्वित-हृदिद चितदसास्येन

उरो-हृद्तसंदंशेन |

सधुसूदनस्य-वेष्णवखानकेन वंशधारणेन |

व्यक्त -प्रसारितपताकाम्याम्‌

अनुराग-सिग्द दया हृ द्रतचतुरेण

इव-आवतनेन

खेलत्‌-उःघङ्न

अनंङ्क-हृद्यापेष्टित चतुरेण

खेद-विषण्णया दृष्टया

खदांबु-अङ्गाचरदधः समानीत तिपताकेन

पूर-अधस्तल परोलरितमिरिपताकाम्यामर्‌ #

पियं -हृद्रतचतुरेण |

वः-पुरः प्रसारितोष्व॑तरपतकिन १२

अ्पदी

धितकमलाङ्ुचमन्डल धतङ्कडल कटितिरुखितवनमाल जय जयदेषहरे

भित-मिलितद्रचीष्खाम्याम्‌ कमला-कमलवतंनया करषितांचलखर ्चखेन चमडल-खसितिकीकृतपमफोश्चाभ्याम्‌

७१५0१ ००१५6

#* भनुपूरयतु' इति पदस्य भभिनयः मानरकामु्रमादाल्छपः

१५ धतङुःडख-कणाधोदेशाच्छने रथस्तरीकृतपताकेन रखुलित-रखितारपह््रेन वनमाल-कन्धरज्ञाुपयन्तसमानित चरच्खटफायुखाभ्ाम्‌ * जयजयेतयादि-पूचैवत्‌ उद्ुत्तेन

देव-ररारसांजरिना

हरे-बेष्णतसानकेन

दिनमणगिमडर मण्डन भव खंडन मुनिजनमानसहंस जय० २॥

+ दिनमाणिमण्डल-उर््वभ्राित दवी घुखेनिकरयादटवा

मण्डन-रोरितारपष्टमेन

मय-अङ्गदितोध्यगतसंदंश(भ्याम्‌ |

रवं डन-स्फन्धदेशास्तिर्थग्गताधस्तरुपत्ताकेन

खुनिजन-हद्रतचरित संद॑शेन अथवा प्रतिदिण्द्चित द्वीपुखेन प्राबण॑मुद्रया

मानस-हृदतदसाखन हंस-पुरखलहंसास्येन

# जय-पू्ववत्‌

4 (/

काटीयविषधरगजन जनरञ्जन यदुङ्कखन षिन दिनद्रा जय० / कारीयविषधर-सपशीर्पेण 9 _ कन गजन-व्रहिः ित्पांगुलिद्रयति पततन

१६ जन-विस्तारितोध्वतरपताकेन रंजन-हृदरत संदशेन रोरितारुषषटयेन यदुङुल-विस्तारित पताकेन अथवा शिरस्थांजलिना नलिन-कमलवर्तनया ] | विनेदा-उर््वभ्रामित सचीयुखेनाकेकरच््टया | जय जयेलादि-पूर्ववत्‌ मधुखरनरक विनारान गरडासन सुरकुरुकेलि निदान जय ०॥ मधु-कणाधेदेशपेित तिपतकरिनालीटस्यानकेन वीरद्शया सुर-उष्वौधस्तकीकृतोेनामाभ्याम्‌ =` नरक-पुरो भूमिदरितपतकिन तालष्रयान्तरितोर््वाधस्वलार्धवन्द्‌- भ्याम्‌ रद्रया च। विनारान-स्कंधदेशाततिर्यग्गताधस्तलपतकिन गरूडासन-गरुडस्थानकेन मणिबन्धस्य शिखरेण अथवा करी मुखेन सुर-रलाटस्थांजलिना कुल-मंडरीटृतमिरिताग्रचीडखाभ्याप्‌ केलि-हूङ्गत विकासितयुङरेन अथवा क्षिप्रासिप्तकरणेन निदान-आवतंनेन इतयुषटिना ४॥

अभ कमर्दल रोचन भवमोचन चिसुवन भवन निधान जय०।॥ ५॥

अमल-रोलितंदशेन कमल-कमलवर्वनया

ष्‌ 1 81 0

रुः

9 १४५

देट-चतुरेण

ल्टोचन--अपांगाघतित चतुरेण

भव शनैरु्वगताङ्कद्‌ शितसंर्दशास्याम्‌

मोचन -तरिच्युतधुष्टिपरावतेनेन

सिखवन-अधोमध्योध्वेदरित पताफेन अथवा भरामितोभ्वयुष सूचीयुखेन पुरस्तछ दधित चरिश्चूलेन

सयन-उर्पवमिलिताग्र भृगशौर्षाम्याम्‌

निधान-आपतितेन कृतपुष्टिना

जयजयेया दि-पूवत्‌ जनकसुताक्रत भूषण नितदुबण। समरशामित दराकठ जयजयेदयादि० &

जनकः -- उर््वस्थिताधस्तलपताक तालद्रयान्तदः्चित बाणहस्तकेन

खता-तालान्तरिरोष्वधस्तला्धचन्द्राभ्याम्र्‌ अथवा हृद्रतसंद॑चे- नाधस्तलीकृतसपशीरषेण

क्रुत-अधोपुखह स्ास्येन

भरुषण-स्वंधदेशाचलदधः सपानीत खटकापुखाभ्याप्‌ अथा भूषण धारणयुद्रषा प्रत्यमदशनेन

जित-स्कन्धदेशात्तिथेग्गताधस्तरुपतकिन अथवा उद्वेति पताकेन

दृषण--युखसमीपोर््वाधस्तरोणेनामाभ्याम्‌

समर प्रलालीदस्थानकेन वामह्ृतपुष्िदक्षिणकणाडृष्टखटका मुखेन

राभित- स्कधदेल्ाततियग्यताधस्तरपतकेन

द्दाकण्ठ--पुरस्तरछ विरलांयुक्िपताकाभ्याप्‌ हनोरधोर्विताङ- पष्टवेन

१८

अभिनव जलधर खुन्दर धतमंदर

श्रीमुखचन्द्रचकोर जय० ॥४७॥ अभिनव रोलिताखपष्ःन जलधर पिक्पसासि शनैरूष्यं षमार्मात्‌ पिहिताधस्तहपताकाभ्याम्‌ सुन्दर--रोलितारूपह्छयैन धृत--ऊर्प॑तरोष्वस्थित पताकाभ्याम्‌

मन्दर-उर््वस्थितारपल्ययेन मथनरीत्या चतुरस हस्तेन

श्री. -कोरितारपदयेन स्वस्तिकाङित पद्मकोलाभ्याम्‌ सु्व--हनोरधोवातिंतारुपदेन चन्द्रचकोर-अर्धचन्द्रतिद धित तिरशीन कपिर्थेन जयजयेलयादि - पूववत्‌ ।॥

तव चरणे प्रणतावयमिति भावय

कुर्कुरा प्रणतेषु जय० तवरः प्रसारितोर॑तलपताकेन चरणे--चरणदरित पताकेन प्रणताः-अधूतीशरसा रराटसांजखिना व्थ--जत्रुदरितालपछमेन हति.-रर्भ्वतलक्षिचिद धोगत मृषशीरमेण भावय--दूद्तसंदंमेन कुस--अधोगुखहसाखेव | फुर -हृदतपताकेन अथवा हृदधताधस्तर चतुरेण परणतेषु--अवधूतक्िरमा रलाटखांजरिना जयजयेतयादि पूववत्‌

~~ २० ५५ +

1.३

१९ श्रीजयदेवकवेरिदं ुस्तेखदम्‌ मङ्गटसुज्ज्वरगीतं जयजयदेव हरे

[१ [-

आरी-रनेरूष्वंगतालपह्वेन जयः व--अवधूतशिरसा ककाटस्थांजरिना कवे; - अधरात्पुरोगत दंस्राखयेन इदँ ~ किविदर्थोगुलिपुरस्तरुपतकेन कुरते - अधोयुख्हसाखेन सुद--हृद्त पिकसित श्ुहरेन मङ्गलं-- उदरत्तदस्तकेन उज्जञ्वट-लोरितपदंशेन गीतं--अधरात्पुरोगतहंसाखेन जयजय--उदुत्दश्तकेन देव--अत्रधूतशिरसा रुराटकपोतेन दरे-भिभङ्धीखानकेन ब्रसन्ते वासन्ती इसमखुककमारे रथयवैः भ्रमन्ती कान्तारेवहुषिदित करष्णाञसरणाम्‌ | अमन्दं कन्दपञ्वर जनित चिन्ताङ्करतया चह धां राधां सरखमिवसरूचे सहचरी १॥ वसन्ते--कांगुरेनारुपलवाभ्यां वासन्ती-रुताकरचरदृध्वानीत कतप्वेन कुसुम--कागूलेन सुककुमारेः-- चलद गुष्ठेन अवयैः--अङ्गद्ित ईसपक्षेण

२०

भ्रमन्ती- प्रामितप्चीषुखेन अथवा भ्रमया दादश षिधायां यथा

रुचिग्रीद्या | कान्तार- उर्ष्वगततरिपताकाभ्यां विश्तारितोध्वंतहपताकाम्यां बहु--अविशितोर्ध्वतरपताकाम्यां | विहित--शनैरधस्तरीकृतपताकेन क्ष्ण -- त्रिभङ्गी खानकेन अनुसरणां- चरत्पुरः प्रसारिताधोगुरिपताकेन अमन्द--चरुतिपताकेन

न्दर्प- हृदविष्टित चतुरेण .

ञ्वर--विधुतशिरसाचरूपताकाभ्यां अभितक्तयादृथ्या जनित ~ शनैरवेषटितोध्व॑तरुपताकेन चिन्ता-कपोरगतार्धचन्दरेण अंचितश्षिरसा आकुटतया--विष्ण्णया दश्वा दोरुदस्तकेन वरुहाधां--अङ्गव स्तिः राधां -- खरस्तिकौकृतपञ्कोशाभ्याभ्‌ सरसं-- चतुरेण इदं--पुरोद धितपतकिन उचचे- अधराप्पुरोगतदहसाखेन सहचरी--अथस्तलसपं्ी्पेण

दराषेदखितिमद्धीवद्धिच॑चत्पराग

प्रकरितपटवासेः वासयन्काननानि इहि वहति चेतः केतकीगन्धबन्धुः प्रसरदसमबाण प्राणवद्न्धवाहः २॥

द्रबिदलित--रकिविदहिकर्तितयुद्रेन म्ीवलि--उर््वेगत्रिपताकाभ्पां भामितोर्वुखध्चीगुसेन च।

४,

२१

चचत्पराग-- विस्तारित चरितां गृष्ठसंदमेन ) प्रकटित - बिस्तारितोष्य॑तरुपताकेन परवासैः-- चरितां गुष्ठसन्दशेन वासथन्‌--नासागतदहसासेन काननानि--चलद्ष्वेगत्रिपताकवित्तारितोध्वतरपता काभ्यां | इहदि- ऊध्यतरमृगश्ीर्पेण | दहति- चलद्वंगत तरिपत्तकिन विधुतशिरमा चेतसा--हदतसंदंलेन केतकी -- ऊध्वं मिलितत्रिपताकाभ्याम्‌ गन्ध--नासागतहंसाखेन न्धुः-- मिरितघ्नचीयुखास्यां प्रसरत्‌-स्वतरविष्लारिति परतकिन असमवाण-पिरलांथुलि पुरस्तरदर्शितपताकेन पाणवत्‌--दृदत हंसाखेन तिथैवप्रसारिति चरुप्पुरःसमानीत विपाकेन २॥ न्मीलन्मधुगन्धल्छडयमधुपत्याधूतचुतांकुर ,कीडत्कोकिलकाकलठीकलकदैशद्रीर्णकर्णज्वराः नीयन्तेपधथिकैः कथं अथमपि ध्यानावधानक्षणाः प्राप्प्राणसमा समागमरसोष्ासेरमी वासराः न्मालत-- विचिहिकपितयुङ्कखेन मधुगन्ध -- नाप्तागतकांमूरेन त्रथ--संकोचितोणैनाभेन अथवा परिलितांयुकितरलिपताकाभ्याम्‌। मधुप भरपरदस्तेन व्याधूत--कंपितपताकेने चूत- उर्वगचरवरिपताकाभ्याम्‌

२ब्‌

अंकुर-रर्प्वतरुकिचिदधिकतजजनीक कपित्थेन

क्रीडत्‌-षिप्राक्षप्त करणेन

कोकिल-कपित्थेम

काकरीकटलकरैः--लोकितंदं चेन कर्णंगतघ् चीश्चखेन

उद्गी्णकर्णज्वराः- कर्णसमीपे उदेष्टित धिपताकेन

नीयन्ते--अविष्टितपताकेन

पथिकैः-शिथिलांगुरितिर्थग्गतागत पतकिन भ्‌

कथकथमपि-- शनैरवेष्टित पताकेन विषण्णयादृष्या

ध्यानावघान --हृदतपन्द॑शेन निमीलितदण्या

क्षणाः -- विच्युतसन्दशेन

प्राप्र-उष्वोधस्तर मिशितचतुराभ्याम्‌

प्रणसमा-मिरितन्रचीध्ुखाभ्याम्‌

समागम--हृदतसद शेन भिहितस्रचीग्चुखाभ्याम्‌

रस--चकुरेण 9

उल्छासैः--हुदतविकसितथरुरेन ॥ि

अमी--उध्वाधस्तरम्गसीकेण

वासराः-- विस्तारितोध्यैतरुपतकेन

अष्टपदी

रकुरितलख्वङ्गलतापरिशीरखन कोमर्मल्यसमीरे 9 मधुकर निकरकरम्बित कोकरिटं कूजित कुजकुटीरे

खलिति-रोलितारूपष्छषेन

लवड्--किचिदृ्ीनीत तर्जनीक कपित्थेन

खता --- रताहस्तेन अथवा भरामितोष्वगतश्नचीयुखेन परिरीलटन-- पितितघ्रचीषुखाभ्पाम्‌ ~ :

२३ कोमर-चलितागषठहंसासखेन मल्यसमीरे--उर्वसितालपह्छवासिय॑गगतोष्व॑ततछचरत्रिपताकेन मधुकर~ अमरहसतकेन | : निकर-आवत॑नेन छृतदुष्टिना अथवा मण्डलाकार भरामितष्रची ति धुखाभ्याम्‌ करम्बित--मिरितद्रचीयुलाभ्याम्‌ ,, कोकिल दषेन

कूजितं - अधरासुरोगतहंसाखेन क्णगतद्रचीयुखेन

¦ कंजकुर्टारे -- पष्टवहस्तकेनोष्वमिङिताग्रमृगश्चीपोम्याम्‌ विहरति दरिरिहे सरसवसन्ते

खलयति युवति जनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरन्ते

¦ विहरति-समपादाचाया

हरि-भिभङ्गीस्थानकेन |

, # इदे ~ परोदेशद शंतपताकेन

¦ सरस-- चतुरेण

: बसन्ते-पषवकरंगूराभ्याम्‌

/ द्त्यति--चतुरसस्थानकेन रथचक्राचा्या अथवा घ्रमर्था | * युवति--खरस्तिकीकरत पञ्मकोशाभ्याम्‌ |

, जनेन--विर्तारितोध्वतरपताकेन

` ® भवुरन्ते-विषण्णया इषटवाऽधोगुखशचिरसा

उन्मदमदन मनारथपथिकवधूजन जनित विलापे | अलिङ्कुलसङुर कृखमसभूद निराङ्कुल बक्कल कलपे॥

उन्मद--मत्तस्याचा्या मदिरयारष्टया

पि पि

>~ रक रह जनल स्न जनकनं म्ह

९४

मदन-हृद्रतप्रष्टित चुरण अथवा वामप्रसारसितषुष्टिदक्षिणाकृष् खटकाषुखाम्याम्‌

सनोरथ--हूद्रतसन्दशेन

पथिक--अधोँगुङिषापपाश्चगतागतपताकरेन |

वधू--हुद्रत पञमकोश्(भ्याम्‌ |

जन -- विस्तारितीष्वैतरुपताकेन

जनित--मविष्टित फिचिदृष्वगतपताकेन।

विलापे--फरुण यादष्टयाङ्वलितिन दोरुहस्तक्रन

अिङ्कुख -भरमद्धपराम्याम्‌ |

संकल-अधस्तरुमिलित रोलितपताकाभ्याम्‌

कु खम--कांगूरेन

ससूह--भयत॑नेन कृतघु्टिना अथवा मण्डलीदृत दर्ची्खाभ्यां

निराफुल--षिस्तारितोष्॑तलपताकाभ्याम्‌ |

घद्ुखकल।पे -- ऊध्वैस्थित प्रस्परमिरितांगुलिपताकाभ्याम्‌

सगमदसीर भरमसवदौवदनवदलटमाखतमार युवजन हृदय विदारणमन सजन वसचिकियुक जारे

खगमद संर म-मृगक्ीपाचलद्थोगतपतकिननासागताधस्तल शुक तुन्न च।

रभस--आपेष्टित पताकेन

वरदावद-मिरितष्चीडखाम्याम्‌

नव-रफिचिदधिकत्जन्यग्रोष्व॑ुख कपिस्येन

दरभाल-विस्तारितोश्वतरचहुरेण

तमाले-चरुदष्वमत्रिपताकाभ्याम्‌ |

युव. निचित शिरसा प्र्तरथाचाया

जन-विस्तारितोष्वतरुपताकेन

4 २५

हदय-हृद्रत सन्दशेन |

विदारण-रेचितहस्तकेन

मनसिज-हूदतवेष्टित चतुरेण

नसख-ताम्रचूडेन |

रुचि-चलटत्रिपतक्रिन |

किंडुक-ताम्रचूडेन

जाले-अधस्तकमिकित रोङितपताकाभ्याम्‌ मदनमहीपति कमकदण्डरषवि केसर्ुपुमविकासे भिशितदिटीखुख पाटलिपट्लक्कतस्मरतूणविरखसे

मदन-हृद्तवेिचतुरण अथवा रोकितारपष्टमैन

महीपति परसलाधोदितपताकेनावतेनेनष्तपुशियरि रेण अथवा अधस्तरपताकाधोदर्धित भाणदस्तकेन

कनक-वामकरस्योपरिच। हिते सर्दशेन

दंड-ठध्वेषुखद्चीयुखाभ्याम्‌

रुचि- लोरितारूपदह्छेन

केसर--चरुद्ध्नगत्रिपताकाम्याम्‌ |

कुसुम--कगूरेन

विकासे--भिकसितपुङ्रेन

भिरित-मिर्ितष्चीषखाभ्याप्‌

दिरीमुखपाट्टपरर -- कांगूलोपरिभमद्धमरेणमिरिताधस्तललो - कितपवाकाभ्याम्‌

क्रत-अधेप्रखहंसाखन

स्मर द्रताषेशितचतुरेण

२६ तूण--कौटिपार्द्‌शिंतारुपष्वादाकपित कपिस्थेन

विखासे--रोलितारूपहटयेन ।॥ विगलितरखुज्ित्तजगदवलकिनः तर्णकस्णक्रतदासे |

विरदिनिक्रन्तन कतमुखाक्रतिकेतकर्दतुरितारे ५॥

विगलित रकिचिदधोयेष्टित कतरघुखेन लज्ित-रुज्ञितया दृण्वा पराघ्रत्तेन शिरमा जगत्‌--तव्रिस्तारितपताकेन अवरोकन--अंचितकरणेन कान्तया द्या तर्ण--कपिस्थन करुण-ंगूठेन क्रत-अधोषुखहंसाखेन हासे-प्रपननष्ठुलरागेण विकसितथुञुरेन विरदहि-विथुक्त्चीपुखान्याम्‌ निक्रन्तन--तिरयग्गताधस्तरपताकेन कुन्त - स्कन्धसमीपि द्रितकपिस्थेन सुखाक्रूति-एचीषुखन केतक-ऊर््वयुखमिलिततल तरिपताकाभ्याम्‌ | दं तुरित--भवरतिंतरुताकरेण आदो दिग्दर्वितस्रचीगुखेन | माधविका परिमल्ललितेनवमाल ति जासिखुगन्धौ | सुनि मनसामपि मोहनकारिणि तरुणाकारण बन्धौ

माधविका--भामितोध्यगतद्चचीश्ुखेन पष्टवहस्तकेन अथवा चलदुध्वसमानीतलताकरेण ` कै

९७

परिमल नाप्तागतक्रंगृरेन ललिते-रोरितारपहमेन नव उर्णवप्ुखर्विविदधिकतजनीकङष्यग कपिलेन . मारखतिजाति- घ्रामितोध्वंगतष्घवीयुखाम्यां कांमूरेन सखृगन्धौ-नास्ागतहंसासन | सुमि--हृदतचालित सन्द॑शरेन मनसां-टृदतहंसाखन मोहनकारिणी-समास्तारितमत्तस्याचाया अपेोप्रुखर्हखेन तरुण--परत्तसयाचाया निहंचितेन शिरसा रपद्छ्या अकारण--विच्युतकपित्थेन

न्धौी- हदत्‌ पताफेन & ` स्फुरदतिषुक्तरतापरिरंमणसुकुलित पुरूकित चूते।

न्दावनविपिने परिसरपरिगत यसुनाजरपूते ॥७॥

स्फुरत्‌-रोारितारपषधेन अतिकलता-रुताकरोध्व॑समानीत पद्येन परिरेमण-उत्सगेन सुकुटित करेन पुलकित अङ्गद रित चलदृष्वंगतरदपक्षेण ूते-चरुदृ्वंगतपताक्राभ्यां पष्टयाम्यां |

न्दावन-विस्तारितोष्वेतरुपताकाभ्याम्‌ विपिने--चरुद्ष्यगतन्निपताकाभ्याम्‌। चरुद्ध्वंसमानीतकताकेरेण च। परिसर पार्थेपुरस्तलाङ्खलि पताकेन परिगत परिवर्तित विस्तारितपताकेन

२८

यथुना-ऊर्वभ्रामितघरवीपुखाचलद धस्पमानीत लिपतकिन तेनैव पुरः प्रसारितेन

जल वापाधस्तरदक्षिणोध्य तचा ठितावर्तित चरूदं गुरिपताकराम्यां च।

पूते- रनैरुर्यगतारपदटवेन \

श्रीजयदेवभणितभिदस्चदयाति दरिचिरणस्श्ति सारम्‌ सरसवसन्तसमथवनवणेन भलुगतमदम विकारम्‌ ॥<८॥

श्री शमैरूध्वंगतालपह्ेन

जयदेव-ठलारस्थकपोतेम

भणित-अधराप्पुरोगतदहसाखेन

हदं --अधगुटिपुरस्तरपताकन

उदयति विकसितद्रुुलेन

हरि- तिभङ्गीसखानकेन |

चरण--चरणदरितपताफेन

स्श्रति-हदतचालित सन्दशेन

सार अवतंनेन कृतयुष्टिना

सरस-रो रितारपष्टमेन अथवा चतुरेण

वसन्त पटवकांगूराभ्याम्‌

समय--उष्वेतरमृगीर्पेण

यन--चलदु््वगतत्रिपताकाभ्यां `विस्तारितोध्यैतरपताकाभ्याम्‌

व्णन--अधरात्पुरेगत्ह॑सास्येन

अनगत-प्रामदेशात्तिय गानीतेष्व॑तसमरगश्ीर्वेण अथवा अधो पुलि पूरःप्रसारित चरत्रिपताकेन

मदन-हूदत षेषटेतचतुरेण

विकार-करान्तया दृष्या कपरटवर्तनया

4

नः

२९

नियोत्सङ्गवसदुजडकवयलष्केरादिवेरा चरम्‌ प्रालेयष्वनेच्छयानुसरति भ्रीखंडदीरालिनः किचित्‌ लिग्धरसालमौलिसुककखान्यालोक्यदहषौदयम्‌ न्मीलन्ति इदः कुहरिति कलेत्ताला;पिकानां गिरः नित्य--अविष्टितपतकेन उत्सङ्ग- उरसङ्गन पा्धधोद श्ितपताकेन वसत-शनैरधश्तरकृतपताकेन सुजङ्-पषशीर्पेण कवल-युखंप्रतिगच्छत्पद्चकोरेन केरात्‌-विष्ण्णया द्या धुतशिरसा। अथवा दोरहस्तकरेनांचित शिरसा इव-आवत॑नेन हेरा चलं-शिरस्थांजलिनापटटवेन प्रालेय-विधुतशिरषा |

कन ¢

एवन-प्रोमिलिताधस्तरुपाश्चादधोगतपताकाभ्याम्‌

इच्छया-हूद्त सन्द॑मेन।

अलसरति-तिय॑ग्गतोध्व॑तलम्रगरपिण |

भ्रीखड-परापतिं तथुरिभ्याम्‌

दोरखानिखः-रध्वंखितारपदयेन चलत्तिर्थग्गतत्रिपताकषेन किंचित्‌-किंचित्तजनीद पितोष्व॑पुखकापित्थेन लिग्ध-रोटितांयुष्ठोष्वपुखर्दसासखेन रसामोि--चरदुध्वंमत्रिपताकाभ्यां उर्षवपरिहितमुखाभ्यापू सखुकुलानि-युङ्रेन

२५ जाराच्य-नेत्रांचरेचलतिपताकेन तिर्यगतदृछया हर्षोदयात्‌--दृद्रतषिकासितयुङकरेन कुहुःकुहरिति कलोत्ताखाः-कर्णगतघरचीषुखेन पिक्रानांगिरःअधरास्पुरोगतदहसास्येन

इति ललितखवङ्ग अनेकनारीपरिरंभसंभ्रमस्फुरन्मनादारिषिखासलारखसम्‌ सुरारिभारादुपदरांयंयसौ सखीसमक्षं पुनराह राधिकाम्‌॥

अनेक-पाश्वदे्ापस्पुरः समानीतघ्चीमुखाभ्यां अथवा अविष्टित पताकाम्चाम्‌ |

नारी-खस्तिकीकृतपञमकोश्चाभ्याप्‌

परिरं भ-उत्सगेन

सभ्भ्रत-हद्तपिकसितश्रङलेन

मनोदहदारि-रोटितपरन्दशेन

विटास-धिप्राकिप्रकरणेन अथवा निदनितशिएसा समपादचायी |

लाटसं--हृ्तसन्द॑शेन लिग्धया दृष्टया सुरारि-त्रिभङ्गीानकेन | आरात्‌-तिर्यग्दर्धितार्षोगुङिपताकेन

उपदछ यन्ती-तियेग्द्रित छचीपुखेन साय्यादृष्टधा च। असौसस्वी-करिपतसखीद शितपताकेन

समक्षं -पुरोषर्तितपताकेन

पुनराह-अधरापुरे गतदहंसाखेन राधिकां--खस्तिकीढृत परञ्मकोशाभ्यामू

रक

1

२१ विम्धेषामतरञ्जमेन जनयन्‌ आनन्वभिन्दयवर म्रेणीरयामल्कोमरोरूपनयन्नङ्ंरनङ्गोतखवम्‌ खच्छन्दं बजसुन्दरीभिरमितः प्रयङ्गमादिङ्गेतः

(य [4

श्ड्मरः सखखिमूतिमान्‌ हव मधासुण्धों हरिःकडलति

विभ्वेषां-- बिस्तारितोध्वतरुपताकाम्याम्‌ ` अनुरंजनेन-- रोरितारुपषछषेन जनयन्‌-अविष्टितोष्ेतरुपतांकेन आनन्दं--हृद्रतविकसितयपुङकरेन हृष्टया चया | इन्दीवर---कपरुवतेनया श्रेणी -तिथग्गताधस्तलम्रगशीरपेण इयामलख--ऊध्वविस्तारित चलत्त्न्दशेन कोमरैः-चरितां यष्ठहेषाखेन उपनयन्‌-शनेरधस्तरीषतवताफन अंगेः--अङ्कद रितदहंत्पक्षेण अनङ्गोतस्बं--उर्पगेन खन्छन्द-अविषटितो््वगतपताकाभ्याम्‌ तरजखन्दरीभि ¦ -्चिरसितालपषटवेनाक्षितां चरखटकापरुसेन परध्ृत्तेन तिरसा च। अभितः--पुरोखमण्डसीकृतद्रचीएुखाम्याम्‌ | प्रयङ्ख-प्रयङ्कदारिंत हंसपक्षेण आटिगितः-उस्पगेन श्ुङ्कारः--रोरितारपष्वेन सखि--अधस्तलसपशीपंण मुर्तिमान्‌-अधोष्वनीतसन्दंशाम्या्‌ इव-आवतेनेन

३२ भधौो-कांगृरुपष्टवाभ्याम्‌ सुग्धः-रोरितम्द॑केन | हरि रिभङ्कीस्ानकेन ्रीडति--पिलितांगुलितलश्रिपताकाभ्याम्‌ रासो्धासभरेण विभ्रवभ्रतामामीरवामध्रुवा मभ्पर्णेपरिरभ्यनि मरसुरः प्रूमांधया राधया साधु, त्वद्रदनं सुधामयमिति यादय गीतस्तुति व्याजाद्ुद्ध्चंवित्तस्मितमनोदहारी हरिपातु वः रास--अआव्रष्टितमिहिताग्रपताक्राम्याप्‌ उद्यास--हृद्ररविकापितयुङकरेन हृष्टया दशया भरेण-अधस्तर पुरोमिषितलोरितपताकाम्याम्‌ | विभ्रमभ्रतां-किप्ताक्षिप्रकरणेन। आभीरवामश्रुवां-शिरथालपष्ट्वाकपिंतां चरुखटकागुखेन पराद्तेन शिरसा च। अस्यर्ण-पाशदेशद पिताधौगुलिपतकेन परिरभ्यनि भरं-उस्पंगेन उरः-हृद्रतसःदशेन प्रेम-हूदतेचतुरेण अन्धया-युकुखया दृष्टया राघया-रिरयादाकरषितांचरखटकायुखेन पराव्ततेनभिरसा साधरु-रोरितारुषष्टषेन त्वत्‌-पुरःपरसारितोष्व॑तरूपताकेन | यदन-हनोरधावरपिंताहपष्टषेन सुधामयं--अ्चन्द्रेण |

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~ - ^ = ~~ ^

5 २१ इति-आवरतिंतपताकेन टयाद्ल्यगीतस्तुति -अधराव्पुरोगतहसायेन ठयाजात्‌-अविष्टिताधस्तलप केन उद्रट-आवरितोष्य॑मतपतकेन

चु म्वित-अधरसमीपाधोध्व॑षुखधुद्लाम्याम्‌ स्मित-प्रसनप्रुखरागेण मनोहारी-दृद्तसन्द॑शेन दरिः-त्रिमङ्गीखानकेन

पातु- शनेरधस्तटीशतपतक्रिन वः-परप्रषारितोष्य॑तरपताकेन

अष्टपदी ® चन्दनचर्चितनीख्करेवर पीतवसनवनमारी केटिचलन्मणिङ्कग्डलमण्डितगच्डयुगस्मितच्चाटी ॥१॥ चन्दन--आरात्रिकशिरपा परावपितष्ठष्टिभ्याप्‌ चचित-अङ्गलेपित है्रपक्षेण आधूत शिरसा नील-ऊष्वबिस्तारितचरस्शन्दशेन। उरिकषपरशचिरसा कलेवर--अङ्गदाित ईसपक्षेण पीत-फरभोपरिचकितसस्दंभेन

वसन-पशवदेशान्नाभिपर्यन्तानीत परस्रसम्पुख चरत्वटकाप्ुडाभ्यां अथवा स्केषदेलात्पुरःसमानीवखटफाम्रुखाम्याभ्‌

>~ वनमारी-प्कन्धदेशाजादुपयंन्वानीतखटकुखास्याम्‌ |

३४

कैटि--मिलितांयुरितलश्रिपताकाभ्यां अथवा भुखसषमीपाधो्व- मिरितथराभ्यम्‌

रखत्‌-विष्ि्टंगुङिचशरताकेन माणि--चरत्कांगुरेन कुण्डल-कर्णादधस्ितहषाखाभ्याम्‌ | मण्डित -परिवाहितशिरसा रोकितारुपष्येन च। गन्ड-उत्तानवंचितेन | युग~-अर्धपताक्रन स्मित प्रसननयुखर गेण हया ण्या द्रारी-परिव!हितश्चिरसा गोकितारपष्टमेन ।' १॥

[ [रि [भैष

हरिरिदखग्धवधरनिकरे विलासिनि विलसति केटिप

र॥

हरि-तिमङ्गीखानकेन

हह-अर्धागुलिगपुरोदेशद किंतपताकेनावधूताश्चिरसा

सुग्धवधू--हृत्समीपे खस्तिीकरत कांगूज।स्यां। अथवा यु्रुखाभ्यां |

निकरे--परश्देशाच्छनैरानीत परस्पर सन्धुखघ्चीयुखाभ्याम्‌

विलासिनि-निर्ईहचितेन शिरषा समपादचा्यां अथवा क्षिप्राक्षिप् करणेन

विटसति-परिवाहिवश्षिरसा रोङितारुषष्मेन

के छिपरे-गुखसमीपे उष्वाधोुखयुङ्कराभ्यां उत्सङ्केन

पीनपयोधरमारभरेणदेरि परिरभ्यसरागम्‌

गोपवधूरचगायति काचिदुद॑चित पश्वभरागम्‌ २॥ पीनपयाधर-खरस्तिकाकृतारपहवाभ्याम्‌ भारमरेण-वक्षःसमीपे एनैरधस्तरीढृतपताकाभ्यापू

२५

ट्रि-त्रिभङ्गीखथानकेन | परिरभ्य-उत्सङ्खनयुल दशया च। सरागं-हृदतसन्द॑शेन सिग्धया दएया च। गो पवधूः-शिरखालपष्टवाप्रर्षितां चरखटकागुखपराटृतरिरोभिः अलगायति-अधराप्पुरोगतहंसास्येनावधून शिरसा काचित्‌-पाश्वगतष्घचीमुखेन उदचित-कण्टदेशादधर परःसमानीत हंसास्पेन पथ्चमराग- कणगतमचीमरषेन २॥

कापिविरास विलोल विलोचन खेलन जनितमनोजम्‌

ध्यायति सुग्धवध्ररधिकं मधुसूदन वदनसरीजम्‌ ॥२॥ कापि-पाशगतघ्चीगुखेनः। विखास-मभपादचायां रुरितया चया षिरखोर-लोङितया दृश्या च। विलोचन म्रपाङ्कावतित चरत्रिपताकेन खेटन-कान्तया दृष्टया | जनित-अविष्टित किचिद्ध्वगतवपताङेन मनोजं-हू दतावेष्टितचत्रेण किग्धया दृष्टवा ध्यायति-ङकरित दृष्टया समिर हृदतपन्दशेन खुर्धवधूः-टृद्तषस्तिकालतकांमूखस्याभ्‌ अधिकै-अविषटितकिंविदुष्वेगतपताकाम्पामू मधुसूदन-िमङ्भीखानकेन वदन-हनोरधावतिं तारपष्छमेन सरोजं कमरवतनया ३॥

२६

फापि कपोलतले भिखितारपितं किमपि श्रुतिमूले वार्‌ चुचुव नितस्बयती दयितं पुक्षरलुक्करे ॥४॥

कापि-पुतिरसा पार्थगतघ्रचीयुखेन |

कपोखतरे-उनत्तानवचितेन

मिलिता-पिकितघ्चीपुखाभ्याम्‌ |

आलपितु-अधरास्पुयेगतदहंसास्येन |

किंमपि--आवर्तित चतुरेण अथवा विच्युतकेपित्थेन

शुतिमूटे-कणापोदर्धितरहसास्येन |

चारु-रोरितारपष्टपेन |

चचुम्य-अधरसमीपे उर्ष्वाधोयुखथुकृकाभ्याम्‌

नितम्बवती-नितम्बहस्तेन

दयित-हृद्तपताकरेन |

पुलकेः-कपोरेचलत्रिपताकेन

अुद्कटे-रनेरावतितपतकेन अथवा मिहितद्ठचीषुलाम्याम्‌ ॥४॥ केलिकलाकुतुकेन काचिदमुं यजुनाजल कूरे मजञ्छल्वञ्जुलुञ्जगतं धिचकरषं करेण शूक

केलिकला--उत्सङ्गनाथरपमीपे उर्यमिलितशुलाम्याम्‌ सिग्धया दृष्टया च। |

इतकेन--हृदत पिकसितयुङकरेन हृष्टया दृश्या आवर्तत पतकिन

काचित्‌ पराश्व॑गतष्रचीयुखेन धुतशिरसा

अषु-अरधांगुलिगपुरस्वलपतकेनावपूतकिरसा

यसुना--भामितोष्व॑युखश्रवधिखाम्यां समानीततिर्यक्प्रषारितभिपता केन |

1

२७

जल-अधोध्वंतलचलदंगुलयाधतित परावति पताकाभ्याम्‌

कुटे-चलत्पुरःप्रस्ारित धिपताकाम्यां अथवा मकरहस्तकेन

मज्जल-रोरितारूपद्छ्ेन |

वज्जख-चलदृध्वमधिपताकाभ्याम्‌ |

कुञ्ज-चरदर््वसमानीतरताकरेण ` मिरितपुखण्रगश्ी म्यां

गतं -सनैरवष्टित तिर्यग्णतपतकेनाधूतदविरसा

विचकर्ष आकृष्टवसन खटकाधुखेन

करोण-करददितपताफेन

दुकूरे-स्वन्धदेशानपण्डलाकारपुरःसमानीत खटकायुखाम्याम्‌ ॥५॥ करतलखतारु तरखबदछसावलि कलित कस्वन व॑रो रासरसे सदृद्धलयधराहरिणा युवतिः पररराम्से ॥६॥

करतलख्तालट -ङृततालिकापताकाभ्याम्‌ तरख-चलर्पताकेन | वलखयावलि- प्रकेगतार्धचन्द्रेण कलित आवेष्टितपताकफाभ्यां भिरितद्चीध्ुखाभ्यां च। करुखन --कणंगतशचीष्खेन अथवा कर्णगतहैसास्येन धुत शिरसा ललितया दृट्वा वम्दो-वंशधारणयुद्रया राखरसे-तिभङ्गस्थानकेन हदि सखस्तिकी कृत पयकोराम्यां परस्परा न्तगतांगुरिपताद्नाभ्यां अथवा नृत्यविकेषण सह प्रिलितष्चाग्खाभ्याप्‌ चुलयपरा- भ्रमय अथवा गतिविशेषेण

हेरिणा-तिभङ्गीस्थानकेन्‌

~ १० > ५.5 सा ^

२८ युवतिः-स्वस्तिकीकृतपग्रकरोशाभ्याम्‌ प्रदादांसे-अधरात्पुरोगतहंसास्येन लोकितारूपहछेन ६॥

शिष्यति कामपि चुम्बति कामपि रमयति कामपि रामाम्‌ परयति सस्मित चारुपरामपराभरलुगच्छति वामाम्‌

श्छिष्यति-उत्सङ्खेन पएङुलया दृष्टया

कामपि-पाशगतष्रचीषुखेनाधूततिरसा

चुम्बति अधरसमीपेशनेरूध्वाधोमिहितप्ृलाम्यां अवधूतरिरता च।

कामपि-वामपाश्वगतद्चीषुखेन धुतश्षिरसा

रमयति-मिरिततरत्रिपताकाभ्याम्‌

कामपि-ति्ग्दर्शितद्र्चाषुमेन धुतरिरमा

राभां--आक्रषितांचर खटकायुखेन परावृत्ते शिरसा च।

पद्यति-रुरितिया दय |

सस्मित प्रपन्नष्ुखरागेन दास्यदश्टया

चारु-लोहितसन्दशेन परिवादहितक्षिरसा

परां- तिर्थग्गतद्वचीयुखेन धुतक्षिरसा

अपरां तिथग्दशितद्रचीषुखेन

अलुगच्छति-ऊर्वैतरुतियेर (तशगदीर्षेण

वामां _ आकषितांचरुखटकाञ्ुद्ेन पराषतेन विरसा कटाक्षेण श्रीजयदेवकवेरिदमद्सुत केदाव केलिरदस्यम्‌ बृन्दावनविपिने चरितं वितनोतु मानि यशस्यम्‌ ॥८॥

श्रा-ऊध्वगतारुपषछवेनापूतशिरसा

जयष्ेव-रुलाटस्थांजरिना धुतशिरसा

कवेः--अधरास्पूरोगतहमास्येन

#

1

3 सलक = ~

1

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नी ~ 2 भा न= र~

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३९ इद॑--अधोगुिपुरस्तलपताकेन | अ्त--ग्रह्वुतदृष्टवा उरध्वंगतालपयेन केदाद--परिभङ्गीस्थानकरेन : केलि--मिरितांगुलितलधिपताकाभ्यां कास्तया दश्वा च। रहस्यं -कर्णगतहंसास्येन

क्र

घ्रुन्दावनाववन--चटद्ृन्वगतविपताकरस्या पहन वविस्तारवपता कास्था च।

चरित-ऊष्वेतरविस्तारितपताकेन विततनोतु-विस्तारितालपह्ठवाम्याम्‌ रए मानि--उद्रु्हस्तकेन यदास्य--रोरितसन्दसेन विहदरलतिवने राधा साधारणप्रणये हरी विगलित निजोत्कषोदीषीवदोन गतान्यतः काचिदपि लताकरुजे शुजन्मधु्रतमण्डर्ट मुश्वररिखरेखीना दीनाप्युवाच रहःसखीम्‌ विहरति-समपादचायां वने-ऊभ्रतट चछत्रिपताकाभ्यां विक्तारितपताकाभ्यां च। राधा-खर्तिकीषृतपञ्मको श्ाभ्याप्‌ साधारण-अवेष्टितपताकेन

प्रणये--हृदतचतुरेण किग्धया दृष्टया

दरो-त्रिभङ्गीखानकेन

विगलित--हृदये उदेषटित करीषुखेन

निजोत्कषौत्‌-ज्जदरितारपषवेन धुतशिरसा शनैः किचिद््ी समानीतालपह्षेन |

४० रिः

हंष्या- करुद्धा दृष्टया हृद मादृष्वगतचहग्रिपत्तकेनास्कतष्ुखरमेण च। वरोन-शनैरधस्तसीकफूतपताकेन |

गता ~ अधधोगुरिचरुस्पुरः प्रसारितपिपताक्रेन अन्यतः--आवरतिततिषैग्दश्रित सचीषुखेन कचित्‌- अपिष्टितपताफेन

अपि--अआवतेनेन। | लताकुजे--चरदृष्यैसमानीत रताकरमिकलितुखम्गशीषम्पाप च। + ` गंजत-कर्णगतस वीयुखेन अथत्रा अधरास्ुरोगतर्हसाखेन | सधुव्रत -भ्रामितभ्रमरेण

मन्डली --विस्तारितपताकाभ्याम्‌

सुखरशिसरे--अधरार्पुरोगतहंसाखेन सिखरेण ५, लीना--सनकरेण सनैः कृतकपोतेन

दीना--दीनदृष्टया पष्पपृटेन अधोष्ुख श्षिरसा

अपि- आवर्तनेन उवाच --अधरात्पुरोगत हमाखेन

रहः-उधव॑भुखष्चीषवेन

सर्या--अधस्तलपर्परीपंण हद्तपताशन

[रिरि

अष्टपदी >,

संश्चरदधरखुधामधुरष्वनि सुखरितिमोदमर्यराम्‌ चलित दगचर च॑चल मौलि कपोरषिखोलवतंसम्‌

0 ~ = ~

सश्चरदधर-अधरोपरिचसिति सन्दशेन |

(१५ [|

सुधामधुरध्वनि--रोरितपन्दंशेन कर्णगतदहसाखेन .

#।

४१ सुखरित--अधरारपुरोगतहसाखेन मोहन-- मदिरया दृष्ट्या मत्त्याचाया वस्दा--वम्शधारणयुद्रया चखितदगंचख- कटाक्षेण च॑चलभोलि--धुतशिरसा कपोल --उ्तानंचितिन विल्ील-लोकिताटपहवेन अवत॑सं--गण्डथरोध्वभागगत प्रू चीद्ुखेन रासे हरिभह विदित विलासम्‌ स्मरतिमना मम क्रत परिहासम्‌ | रासे-त्रिभङ्गीखथानकेन हृदि ख्तिकी ृतपद्मकोगाम्यां परस्परान्त गतां युलिपताकाभ्यां हरि--तिभद्गीस्थानकेन हद--अधांगुटिपुरस्तरपताकेन विदहित--पनैरधस्तलीषतपताकरेन विलास--धिष्ताक्षिपतकरणेन अथवा नि्यितश्चिरसा समपदाचार्था। स्मरति -हूदतचलिरतांुष्ठसन्द्‌ येन मनो--हूदतसंद॑शेन मम--जन्रुदश्चितालपष्षेन क्रत-अधोधुखहंघासेन परिदासं--हास्यदष्टवा प्रसन्नघ्ुखयभेण चन्द्रक चार्‌ दिखण्डि रिखण्डकमण्डल्वरयितं केदाम्‌ प्रचुरपुरन्दरधनुरलरनितमेद्रखदितस्ुवेराम्‌

चन्द्रक ---अ्थेचन्दरेण

४२ + + चास्-रोिताखषहयैन रिखण्डि-मयुरहस्तकैन शिखण्डकमण्डर --परस्तलषिरलांगरे मण्डरीकृतपताकाभ्याम्‌ वलयित-कैरचन्धेन केरा -शिरोभामाच्वलततियेकप्रसारितारारेन प्रचुर-पिस्तारितोध्वतलपताकाम्याम्‌ + ` पुरन्दर-प्राचीदिग्द्षितष्रचीदुलेनाधस्तलपतकस्य तारुढ.यान्तरखित धाणदस्तकेन धसुः-वामपुरःग्रसारितषषि क्षिणाट्ृष्ट खटकायुखाभ्याम्‌ अनुरञ्ञित-रोकलितारुपहवैन | मेदुरखदिर-तिथक्म्रस रिते वान ताधस्तलमिकितपताकाभ्याम्‌ * सुवेदा- अङ्गद धितयनैरुष्वानीतसन्दशाम्याप्‌ गोपकदम्बनितस्बवती सुखचुम्बनरुर्मितरो मम्‌ वन्धुजीवमधुराधरपट्टवसुष्टसितस्मितदे भम्‌ २३॥

~ 3,

भे

गाप-गोगुखदहस्तेन भरापित सचीष्खेन |

कदम्ब. प्रावतैन कृतयुष्टिना अथवा मण्डारीकरृत परस्परसंुखं पचीएुखाम्याम्‌ |

नितम्बवती नितम्बहस्तकेन

सुसखे--दनोरधावतितालपहेन

चुम्बन--अधरसमीपाधोध्व॑घुखमीरितदुङखाभ्याम्‌

लर्भित-आवतेमेन

लो भ॑ संकोचितोणंनामेन

बन्धुजीव--फंगूरेन

6

~ 1

[9 1

[विक 9 1

+_ भूबण- प्रयङ्खं यथोचितदरिताध॑चन्द्राभ्यां दंसाखाभ्यां

४३

मधुर--रोकलितालप्ह्षेन |

अधर-अधरोपरिवाङित सन्दनेन।

पहटुव-- पटेन

उह्ुसित -अधरसमीपे विफसितद्चुङलेन

स्मित-प्रसन्नश्ुखरागेण

चो भ- रोखितारपष्रेने विपुखपुखकशुज पह्छववलखयित वे्वथुवति सरस्मम्‌ करचरणोरसि सणिगणभूषणकिरण विभिन्नतमिस्रम्‌।।४॥

विपु--विस्तारितपताकाभ्याम्‌ पुखक--अद्वद ितचरद्धसपक्षण

भुज युजदशितपताकेन

पलुव--पष्टुषेन

वरुथित-उत्सङ्न वह्ुव-गोपखमरामितघ्रचीषएखाभ्याम्‌ युवति-खस्तिकाङत पशकोशाम्याम्‌ अथवा वह्ुयुवति.शिरथकपच्छेना कपितं चरखटकाषठेन परादतेन शिरा सहसखं-याणहस्तक्रेन कर-करदधिंतपताफन चरण-- चरणदरितपताकरेन उरसि--दृदतसन्दशेन | मणि--चरस्छांगूरेन गण--आवरत॑नेन कृतद्ुष्टिना

०८४

किरण -- चरेत्रिपताकफेन विभिन्न-षियुक्तषूवीयुखाभ्याप्‌

= 0

तभिस्र-विस्तारितोध्वेमुखपताक्रेन

जलदपटलचरूदिन्दुविनिन्दक चन्दनतिलक ललाटम्‌ + पीनपयोधरपरिसरमर्दननिर्दयहदयकवाटम्‌ ५॥

जलद पटल तियक्परसारितोष्वंभिलिताधस्तरुपताकास्याम्‌ # चरदिन्दु-चलदर््वगताधचन्द्रेण उस्िपशिरसा विनिन्दक--अधरास्पुरेषिकषिप्रसन्दगेन यन्दन-पराधर्तितयुषिभ्यां आरात्रिक शिरसा च। तिलक-रुङारगतश्रिपताकेन ठछटारं--उत्तानवश्चितेन पीनपयीदर-टपखस्िकीषतारपटवाभ्याप्‌ परिसरमदेन-- दुचोपरिमर्दितपताकेन निर्दय-हृदेशे परावित दसपक्षेण अथधा युष्टिताडित सन्द॑गेन रोद्रया द्या | हृदय --हूदतसन्दशेन कवाट--पराघरततितमिरितपताकाभ्यामर्‌ मणिमय मकरमनोहर कुण्डलमीण्डत गण्डसुदारम्‌ पतिवसनमव॒गतसुनिमलजसुरासुर वर परिवारम्‌ ॥६॥

मणिमय- चरत्कागूकेन भिखितप्रचीप्रखाभ्यां |

मकर पकरहस्तकेन

मनोदर-रोङितारुपह्षेन

कुण्डल--क्णांदधोद्ितचरुद्ंपाखेन

मण्डित--रोकित्तसन्दशेन

हि,

५५ गण्डं-- उत्तानवंचितेन उदार-रोरिताशपष्टेन पीत-करमोपरि चाहितसन्दंशेन वसन--स्कन्यदेश्ान्मण्डलाकार पुरःसमानीत खटकयुखाभ्याम्‌ असगत--बामदेशास्पार्धानीतो पय तरमृगद्ीरेण सुनि-हुदतचलितायुष्ठसन्दशेन पुषुखया दृष्या + भन॒ज-जचदर्धितारपद्छवेन सुर-रिरथांजसिना अखर--यखसभीपे ख्तिकीकृतोर्णनाभाभ्याम्‌ वर--अविषटितोष्वेगतपताकेन अथवा श्रषटिस्थरिखरेण परिचारं--पित्तारितोर्धवतटपताकाभ्याम्‌ ।॥

विशदकदस्यतले भितं करिक्टषमय रमयन्तम्‌ | मामपि किमपि तरङ्दमङ््‌ ररा मनसा रमयन्तम्‌ ७॥

^` विदद-रोकितालपह्षेन | कदस्ब--चलदूर््वगतत्रिपताकाभ्याम्‌ पेन तरे-अधांगुरिपुरस्रपताकन भिरित--मिरितघचीयुखास्याम्‌ कलि--पिस्तारितोष्वेतरपत्ताकाम्याम्‌

1 कल्टरुषमयं-- कातरया दथ्या विधुतशिरसा | रापयन्तं--स्कन्धात्तियंगधल्तलपमानी तपत्ताकेन मां--हृद्वतपातक्ेन अथवा जत्रुदधितारपछषेन अपि --आवतनेन किमपि--विच्युतक्रपिच्थेन

तरङ्गत्‌- तिर्थ्परसार्तिचरत्‌ परः समानीताधस्तरुतरिपताकेन

अनङ्ग-- हधापरेषटितचपुरेण

दरा--अपाङ्घावतित चरधिपताक्रेन कान्तया दृश्या च] मनसा--हृदतचदरण | रमयन्त--लोहितालपह्ेन अथवा पिहितां गुरितलत्रिपताकाभ्याम्‌।

श्रीजयदेव फणितमति खुन्दर मोहनमधुरिपुरूपम्‌ हरिषिरणस्सरणं प्रति सम्प्रति पुण्यवतामनुरूपम्‌ ८.॥

श्री--उर्ध्वगताङप्येन जयदेव--रुराटस्थांजखिना भणिर्त-भधरास्पुरोगतदहसाखेन अति--वेषटितफिचिदुष्यगतपताकाभ्याम्‌ | न्दर--रोरितसन्द॑शेन मोहन-रोलितालपह्छयेन अथवा पदिरया दशया निचित शिरा मधुरिपुरूपं- तरिमद्गीस्थानकेन द्रि - शिरस्थांजलिना चरण -- चरणदरितपत किन स्मरण--हवालिवांगुएसन्दशेन प्राति--आषर्तनेन सम्पति- उष्य॑तलमृगशीर्चण पुप्यवतां--अधोधख विकितमुृरेन तिषम्विस्तारितषठचीशुखेन अलुरूपं-परिकितद्चीयुखाम्याम्‌ दुरालोकस्तोकस्तवकनवकाकरोकख्तिका विकासः; कासारोपयन पवनोपि स्यथयति | अपिश्राम्यद्श्वंगीरणित रमणीयानुमु्करटं प्रसूतिश्चूतनां सखि रिखरिणीयं सुखयते

जः कः ~+ ~~ ~ (५ & (८ प्न रन. ०6 स्‌ ५६५४.

= दत +>

~ +, ^.

1

९. =

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दुरालोक-- आकेकरया चछया स्तोक-- उर््वयुखरकरिविद्धिकतजनीय कपिस्थेन स्लतवक-अधोध्खालपष्टषेन नासागतद्फतुण्डनोद्ादहितोरपाच

` नव उध्मश्चुखकपिस्येन

अदोकलतिका--रताकयेषवर॑समानीत छक्पष्येन विकासः-पिकभितघरुृलेन

कासार--अधोपुस्पाधः परोबरतितपताक्राभ्याम्‌ | उपवन-चलदृष्वंगतत्रिपताकाभ्यां विस्तारितोश्व॑तरुपताकाभ्यां च। पवनः-- ति्कपसारितचरतपरस्समानीत त्रिपताकेन। अथ-अधांयुलिद वित परस्तरुपताकरेन

टयथयलति- पिपण्णया दृषएयां गवलितेन च|

अपि-आवत॑नेन |

भ्राम्यत्‌-उष्युखघ्राभितष्घ चीन

भ्रड्धी- मरपरहस्तफेन |

रणित--अधरास्पुरोगत हंसाश्येन अथवा कणंगतघ बीन रमणीय-रोरितारुप्षेन

अनुखुकुल--पृशचेन

प्रसूतिः-भावतितोष्वेगतपताकरेन

चूतानां चरदृष्वेगते(तिपताकाम्यां प्वेन सखि--अधस्तलसषैशीर्मेण हूदरतपताकेन

रिखरिणीयं- उ्वैदर्धितशिखरेण परस्तरुदधितपताङ्ेन स्ुखयते--हुद्तपताकेन शृखया दृष्टया

इस्तखस्त विशासवम्दामनवज्चभृवदलिमद्रल्छवी ब्रन्दोत्सारिदगन्तवीक्षितमति स्वेदाद्रंगण्डस्थलम्‌

मासुद्रीक्ष्य बिलजितस्सित श्ुघासुग्वाननं कानमे गोधिन्द ब्रजश्न्दरौी जनवृत पद्यानि हष्यानि ।॥

हस्त--प्रस्परद्‌ शितपताकाम्याम्‌

सस्त-रद्े्िताधोयुखकरवरीयुखेन अथवा विभङित्रषिना

विलास समपादाचार्यां निहंचितशिरसा रकतया टया

वम्दां- त्र्धारणयुद्रया |

अ्जभूवष्टिमद्रह्टवी--ठटितया दृष्या रिरस्थाटपटवेनाकर्षितां

` चरखटकापुखेन परावृत्तेन शिरपा

वंद-पश्वदेशारुरःसमानीतमिलिताप्रदवीषुखाभ्यां अथवा आवतेनेन कृतशुष्टिना |

उत्साह हृत विकथितपुङूलेन दृषटद्टया

इगन्तकीक्षित-कर क्षेण

अति- आवर्तत किचिदृ्वगतयताकामभ्यामर्‌ |

स्वेदाद्रगण्डस्थलं - गण्डस्थराचरुदधोगत परिपतताकेन विक्िष्ाधुरि मुखेन

मां अध्रदश्चिताषष्टधेन

उद्धीक्ष्य-उष्टोकितेनापांमावर्तित्‌ धिपताक्न

` विलललित-लज्ञितया दध्या परावर्तेत शिरसा

स्मित प्रसन्नयुखयगेण हाखदृष्टया

सुध--अर्धचन्धेण |

सखुग्धान्न-रोकितषन्दसेन हनोरधावरतिंतारपद्येन

कानने-चरुदृ्वंगतत्रिपताकाभ्यां कृतपटयेन विस्तारिपताकाभ्यां

गोविन्वं- तरिभङ्गीस्थानक्रेन |

५.

(९।

शर `

< $ णो ` „+

| ४९

व्रज--गोगुखेन चिस्तारितोष्यतरपताकाम्यां

सुन्दरी-खस्ति्कत पदमकोशाभ्याम्‌

जन षिस्तारितोष्येतलपताशछाभ्याप्‌ |

वरत-पण्डर(कारमिलिताग्रपताकाभ्यां अथक पार्धदेशदुरः समानीतमिकिताग्रषचःमु लाम्याप्‌ |

परयाभि-- अपाङ्गे विकलीरतचतुरयभ्याप्‌

हष्याभिच- द्तविकापितयुङखेन हया द्ष्ट्वा

गणयति गुणघ्रामं भ्रामं भ्रनादपि नेहते वहति परीत,षं दोषं विसुश्वाति दूरतः युवतिषु वखतुष्णे छुष्णे विहारिणि मां विना पुनरपि मनो वामं कामं करोति करोमि किम्‌ गणयति- क्रमेण गणिताँगुलिङ्गतपताकेन गुण विस्तारितोधव॑तरपतकिन स्कन्धदेशास्िविदधः समानीत विरलागुहिपतङ्ेन प्रसारितित्रामपु्या क्णा्ष्वटशायुषेन परावृततेन शिरक्ा मिङितघ्चीयुखाम्यां च। ग्रामं व्यावर्वनेन इतद््टिना भ्राम हु वेषशटितचतुरेण भ्रमात्‌- मदिरया दृष्टया अपि--आ्रतेनेन न-परस्तककंपितपतकिन धुतरिरसा च। हेदते-दृद्तसन्दं चैनं वहति च--रकन्धगतारपदमेन परीतोषं -हृद्रत विकसितेन दोषं--अधरास्पुरोगत्दसास्येन परस्तलकरोलितपतकिनि

ध्य ©

विभुश्वति दूरतः-रदेष्टितप्रतकिन युवतिषु-खस्तिकी एतपश्फोशाभ्याप्र्‌ वरुत्‌-आवेषटिताधस्तरपताशन तृष्णे-हृद्धत सन्दे क्िग्धमा दृष्टया | क्रष्णे--भ्िभङ्की स्थानकन विहारिगि-सपपादचायां निर्हवचितेन श्षिरसा मां-जवरुदशितारपह्ेन विना--उरस्तलकम्पितपता फन अथवा वियुक्तप्रचीष्ुखाभ्याम्‌ | पुनरपि- वारं वारं आवष्टितपताकेन

मनो-हृदतप्नन्दशन

घाम-ताम्रचूडेन कामं हृद्वतावरे्टेठचदुरेण | कराति--अधोषुखहंसास्येन | करोमिकि-जृदधतालपष्ेन उर्भवतललोलितपतक्रिन =. `

अष्टपदी

नित निङकञ्जग्रदं गतया निति रदृसि निरीयवसन्तस्‌ + चरित विरखोकित सकशरृदिशारतिर भसनरेण दसन्तम्‌॥

निमुत-उर्वमिहिताधस्तरपताकाभ्याम्‌ | = ` यै निङ्ुजग्रहं - उथैमानीतरताकरेण कृतपह्येनोष्यमिरितागरमगशी- ¦

पाभ्यां | गतया उर्षवतलतिर्थगतसरगश्र्मेण ] |

निद्धि-ऊष्वनिस्तारितपतकेन | रहसि-ऊर्षव्ुखध्चीषखेन 9

५.

५१

निलीय रीमकरणेन शनेःकृतकपोतेन

वसन्तं--तरनैरधस्तरपतफेन '

चकित त्रस्तया दृष्या |

विरोरित-सचभर्कारं अवाङ्कप्रेटितव्रिपताकेन

सकरदिशा- सर्वदिग्द्धितस्रचीपुदधेन

रतिरभस्-पिलितांगुलितलतिपताकाभ्याप्‌ अथवा उत्सङ्गेन कान्तया दृष्ट्या |

भरेण- चतुरेण

हसन्त-प्रसन्नप्ुखरागेण हःस्यदया

सखिदे केदिमधनश्वारम्‌ रमय मया सदं मदनमनंरथ भावितया सविकारम्‌

सखिहे-अधस्तलसर्पशीषदक्षितपताकेन |

केदिमथनं-पखसमीपे खस्तिकी कतोर्णना माभ्यां स्कन्धदेशासिथेगगत पतकिन च। अथवा तरिभङ्गीख्यानकेन |

उदारं-लोरितारपष्येन

रमय--उस्सङ्धेन युखसमीये उर्वाधोषुखमिटितपुखाम्पाप्‌

मया-जतरुदशितालपष्टषेन

सह-पिरितघ्रचीगुखाभ्याम्‌

मदनमनोरथ--कांगूलेनस्छन्धदेशार्किचिदधः समानीतपताक वाम प्रसारितघठष्टया कणाकृष्षटकापुखेन कान्तया दृष्या

भावित्रथा- हूदतसन्दंशेन

सविकारं-अङ्कदरितचणद्वमपक्षण | अथवा अङ्कादधःसपानीत चल त्रिपताकेन। यहा चरुत्पताकास्णरं विधुतरिरसा

^ $? %ः ८५ ‰,५ २.४

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५९ | 1

पथमसमागमलल्ितया पटुष्वादुदालैरलश्लम्‌ सदुमधुरस्मित माषितया रिधिलीक्रुत जघनदुङरस्‌ ॥२॥

परथम-ररिचिदधोङ्खालि पुरस्तरुषताकेन

समागम-पिरितष्वीयुखाभ्याम्‌ ि

छज्ञितया-रुजितद्ण्या

पटु-शनैरुष्वगतारुप्येन

चाटु-अधरात्पुरोगतदहप्ायेन रोङितसन्द॑शेन परिषाहितकिरसा विकोश्षया दृष्टया |

दानेः- बाणदस्तफेन

अन॒करर-पिख्तिदघचीधखास्याम्‌

सदु-चरदगुषदसाखेन।

रिधिलीक्रुल-रव्दिशषपरिितित कतरीशुखाभ्याम्‌

मधुर-क्णमतर्साखेन |

सित-प्रसम्घ्ुखरागेण हाखयद्ष्टया ~त

भाषितया-अषरात्पुरोगतर्हसाखेन

जधन-नितम््रहस्तेन

दङ्ूटं--पाश्वदश्षातपुरः समानीत परस्परसं्खव्यावाठित खटका- युवाभ्याम्‌ २॥ ४,

किसलयङायननिवेदितया चिरसुरसिममैव दायानम्‌ क्रतपरिरम्भण चुस्बनया परिरभ्य करताधरपानम्‌ ॥३॥ = किसरूय-पह्हस्तकेन [र चायन-स्धानतेनशिरसा कपोलगताधचन्द्रेण खण्डधचीखानकेन च। अथवा सुप्रथानक्न

कक, = कर, कनि

निषेदितया-शनरथस्तलीङृतपताकेन ५.

~ + 4

५२

चिरं-अबिष्टितार्थगतपतकेन आधृतश्रिरपता उरसि--हुदतसन्दंशेन

मम-जव्रदशितारुपह्मैन

एव-आवततनेन

दायानं-स्कन्धानतेनश्चिरसा कपोलगताथचन्द्रेण अथवा सुप्रधानकेन। क्रूत-अधोगुखहसाश्येन

परिरम्भमण--उत्सङ्गेन

सुस्बनया--अधरसमीपे उर्वाधोषुखयुकलास्याम्‌ परिरभ्प--उस्सङ्गन

क्रताधरपानं-युखसमीपे उर्वाधोषुख पुङ्लाभ्याम्‌

अटसमनि भीत लखेचनया युखकावटिख्छितकपोलम्‌ भ्रमजलसिक्त करवरया वरमदनभदा दतिरोम्‌ ४॥

अलसनिमीष्िल-मृक्ुरित दृश्या |

लोचन या--अपाङ्कावर्वित चरुतिपताकेन

पुलकावलि-अङ्गदपित चरद्वुसपक्षेण।

ल्लित-लोहितारष्ह्ेन

कपाठ-उत्तानषचितेन

भ्रमजल-अङ्ाचल्दधः समानीत वत्रिपताकेन

सिक्त-क्षिष्रं युलिष्रकृरेन

करेवरया-- अङ्गद धितदसपक्षेन

वर-ऊध्यंगतारपष्वेन

मदन-हृ्यवेष्टिति चतुरेण अथवा कांगूरस्कन्धदेशचार्किचिदधः समानीत पिरलां पु्िपताक प्रसारित बापुष्टया कणाकरृष खरक्ाभ्ुखन कान्तया दएटया च।

५४

मदात्‌ ~ मत्तरयाचापरी मदिरया दष्टया |

अति-अवरष्टिते फिचिदृध्यगतपताकाभ्याम्‌

लोर॑-रेरित।छष्ट्येन षिकोक्षया द्या कोकिलकरुरव शूजित्रया जितमनसिजतन्भिचारम्‌ छथक्कखुसाद्खङ्कन्तछया नगवषटिशित घनस्तन भारम्‌

कोकिल-पूरस्तलसन्द॑मेन अथवा तियैक्परकारित चखतपुरस्समानीत ' त्रिपताकेन |

कटरव- कर्णगतघु.्चायुखेन

कूजित पा-अधरापपुरोगतरदसासेन

जित-उद्ष्टितपताक्रेन |

मनसिज-हूद्तावषटित चतुरेण

तन्त्ाचिचार-त्िस्तारित चतुरणोद्रेष्टिताविष्टितेन

छथ--िगेदकतदषिव अधोगुलि कतरीषुचेन 1

कुसुम- द्विरःपर्धेखितक्ांगुरेन |

आकुल-परस्परान्तमिलिर्तायुदिपताकाम्याप्‌

कुन्तल या-कांयूलेन शिरीदेशाच्रुततियंक्प्रसारिताररेन

नख-नसद पतां गुष्ठेन

लिखित-उरसि किचिदाकषितो्णनाभेन |

नस्तन-घस्तिक्रीकृतारुपह्ठवाभ्यां अथवा हृदिखरित शीतम § -

साभ्याम्‌ |

भार-दक्षःसमीपेशनेरधस्तरीकृत पताकाभ्याप्‌ ५॥ चरणरणित भणिनृ पुरया परिपूरित खुरतवितानम्‌ सु्वर चिश्चुलरुमेखलया सक्रचग्रह्‌ चुम्बनदानम्‌ ६॥

न्वरण-चर्दष्रणतपताफने

6

दर

7 ~ सिक) यथ ५, 4 9 दय =

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५५

रणित-कर्णगतद्धचीपुसेन

सणि-चरुत्कांगूलेनकेकरया दृष्ट्या

नु पुरया--युरफोपरिमागद्‌ धितार्धचन्द्रेण |

परिपूरित-अधस्तरमिरितपुरोरोलित पताकाम्याम्‌ |

सुरतचितानं-उस्संगेनाधरसर्मपे ऊर्प्वाधोष्ुख पुलाभ्यां सिग्धया इष्टया

सुखर- वार वारं अधरास्पुरागत हान

विश्ुंखल--शनेरावतित किचिदृष्वंगतपताकेन अथवा ` प्रमद्भम- राभ्यां विकोशद्टया च|

मेखल्या--कटिखाधचन्द्राभ्याम्‌

सकचग्रह --शिरोदेशार्किचित्सारितिरासेनाधर्तनेन कतप्रष्टिना अथवा केरबत्धेन

चुम्बनदानं-अधरसमीपे उर्वाधोपिदितयुखदुला्याम्‌

रतिष्ुखसमयरसारुसया दरुकुटित नयन ससेजम्‌ निस्सहानिपतित तनुलता मधुसूदनसदित भनोजभ्‌ ॥७॥ रति-भिरितांगुलितर त्रिपताकास्यां थिव उत्सङ्कनाधरसमीपे उर््वाधोप्ुखघ्रुलाम्यां ललितया दृष्या | सुख-हूदतपताकेन मुद्रया दृष्टया च| सखमय-अपांगुरिपुरस्तङपताक्ेन रसाटसया-चतुरेण श्रान्तदृश्या दर-ऊर््वमुख भिचिदधिक़ तजजनीककपित्थेन सुककुटित-अधघुङ्करुया दृष्टया नयन-दयद्रितेत्रिपतफरन सरोज-कमलवर्तनया

ह, ्ः

५६ निस्सह-दोरदस्तफेन निपतित--उद्रेष्टि6कतर्यीषुखेनाङ्गरकितेन ` तनु-जत्रुदधितारपष्रेन | टतया-रताक्रेरणाङ्गवकितेन मधुसूदनं--त्रिभङ्गीख्ानन | उदित-हृदतविकपितएएषकेन मनोज हृ्यविष्टित चतुरेण अथवा पा्वदेते ्रिचिदष्वद्धित

कामुकेन तेनैव स्कन्धदेलार्किचिदधः समानीत पिरलांगुसि पताकीढतन प्रसारित वामष्ृष्टवा कर्णादृष्टलटकायुखाभ्यां आरीदथानकेन कान्तया श्या च| ७॥

श्री जयदेव भणितमिदमतिश्ायमधुरिपुमिधुगनरीरम्‌ सुखघुत्कण्ठित गोपवधूकथितं वितनोतु सरीरुम्‌

श्री-छभ्वगतारुषह्ेनाधूतरिरमा ~

जयदेव--रुराटयांजलिना अवधूत शिरसा च।

भणिते --भधरातपुरो पतहसाखेन

इदं--अधो गुरि पुरस्तकििताक्रेन |

अतिराय-आवष्टित किंचिद््येगतपताकाम्यां च| #

मधुरिपु- तरिभङ्गीख्थानकेन |

निधुवनशीखं-पिलितांगुलि तरिपताकाभ्याम्‌ युङटया ट्या अथवा उत्सङ्गेन

सुख-हृदतपताकेन युङख्या चया

उत्कटित--खग्धया दध्या |

गोप गेयुखेनोध्व॑प्रातितपरर्वायुखेन

वधु-आकषितांचलखटकामुखेन परदृत्तने क्ारस

>

8 ५७ कथिर्त--अधरासपुरोगतर्हसाखेन } ` वितनोतु- विस्तारितो ष्व॑तरपताकाम्याम्‌ सलीालं--रोलितापद्छवेन परिवाहितेन शिरसा

कंसारिरपि संसार वासनावद्धश्रङ्कखाम्‌ राधामाधाय ह्वये तत्याज बजदछछन्दरीः

कंसारिः तरिमङ्गीयानकन

अपि-आवतेनेन

संसार मधलितशर्ररध्वानीत सम्द॑श्ञाभ्याम्‌

वासना - हृद्रतसन्दशेन

वद्ध्‌--आवतेनेन इतयुष्टिना

श्ुङ्मला--मिकितांगुरितलताभ्रचूडाम्याम्‌

राधां-खकस्िकीकृतपयकोश्चाभ्याम्‌

आधाय शनेरधस्तरीढृतपताकेन

हदये - हूदरतसन्दरेन अथवा आधायदृदये-हूर्समीपे शनैरधल्तरी कृतपताकरेन

तद्याज- बहिः कि्गुलि तिपताकेन

व्रजखुन्दरः--ऊध्व॑तरविस्तारितिपताकाम्यां ससिकीहतप्रकोशा- भ्यांच॥

हृतस्तत्तस्तामदखलयराधिकां अनङ्खवाणव्रणखिन्न मानसः। क्रूताञुतापः सकचिन्दनन्विनी तटान्तङ्कुञे विषसाद माधवः।

हतस्ततः- इतस्ततो दरित्रचीषएुखेन

तां पा्चगतद्टचीग्ुसेन

अनुखल -अधोंयुकितियग्गतागत्‌ मृगशौेण अथव। इतस्ततस्तिष ग्गताचायां उष्वेतलमृगश्ीर्ेण

५८

राधिकां-खस्तिकीकृत पञ्चकोशाभ्यां आकषितां चरु खटकाुसेन परात्रत्तन शिरसा अनङ्ग--हुधावेष्टितचतुरेण वाण परस्तर विरलांगुरिपताक वामग्रषारितयषटि दक्षिणकणाष् खटकायुखाम्याम्‌ | ्रण--हदि द्विष्रिवारं ददित शिखरेण चिन्नमानसः-लरोरितशिरसा हृद्रतसन्दरेन ग्ानद्ण्या क्रुत--अधोष्ुखहंसाखेन अन॒तापः-- हृधदरे्ितचतुरेण अभितप्रया दृष्टया च। सः पार्थगतघ्रची लेन कलिन्दनन्विनी--उष्वंभ्रामितष्टवीगुखात्‌ चरुदधः समानीत ति पतेन तेनेवपुरःप्रसारितिन तटान्तङ्कञ्चे- चलस्पूरःग्रसारित चरिपताकाभ्यां चरदुध्वैगत त्रिपताकाभ्यां। ऊष्वमिरितगुखम्रगशी पाभ्यां | विषसाद-विषण्णया दृश्या अङ्गषलितेन माधवः-तिभङ्गीखानकेन हृदिविसरताहारो नाय सुजङ्मनायकः कुवर्यदलश्रेणी कण्ठे सा गरलद्युतिः मलयजरजो नेद भस्म प्रियारदितेभमयि प्रहर ह्रभ्रान्याऽनङ्ग कधाकिस्ुधावसि हृदि--दृद्रतपताकेन विसलता--कमरूवतेनया चलदधः समानीतभ्रमरेण हारः स्कन्धदेशाचचलन्नामिपयान्तानीतखटकाषखाभ्याम्‌ न--परस्तलक्पितपताकन

[1

(~ 1 1 =

५९

अय॑--हुदितियग्दर्शितपताकेन |

भुजङ्गमनायकः रोरितसर्षशीर्पेण कुवलय--कमरुवतेनया

दट-- चतुरेण

श्रेणी-- विस्तारित चतुरेण |

कण्ठे कण्डवलायेत चरत्सन्द॑शेन न-पुरस्तलकम्पितपताकेन सा--पाश्वगतस्रचीयुखेन

गरलद्युतिः सपंशापाचिलदधः समानीत त्रिपताकेन मरलयजरजः- पर वर्तित प्ुषिभ्यां अङ्गलेपितदसपक्षेण | न-पुरस्तलकभ्पितपताकेन इदं-अङ्गाभिथ्ुखायतित्तपताकेन | भस्म--अधोशुखचरलितसन्द मेन पिया-अधस्तरसर्षशर्ेण हृदतपताकेन रदिले--वियुक्तष्रचीगुखाभ्यामू। मथि-जनुदरितारपष्वेन

प्रहर स्कन्धदेशातिर्थग्गतयताकेन 1 न-परस्तरकस्पितपताकेन हर-रेवस्थानकेन भ्रार्त्या-विभरांवया दृश्या अनङ्क-हद्यापिष्टित चतुरेण छधा-करद्धया दृष्टया किसु-ऊष्व॑तररोकितपताकेन धावसि--हतगव्या

६० पाणौ मा कुरु चूतसायकममुं माचाप मारोपय कीडानिजितविश्व सूरटितजनाघातेन किं पौरुषम्‌ तस्या एव सगीदृशो मनसिज परंखत्कटाक्चाट्युग श्रेणीजजरितं मनागपि मनो नाद्यापि सन्धुक्चते पाणी-करदरितपतपकेन मा~- प्रस्तर कम्पि तपतकेन | कुरु-अधोप्रुखर्हसाखेन चूत पह्टवहस्तकेन सायक-पामप्रसारितयु्टि दकषिणकर्णाह्ष्टखटकायुखाम्याम्‌ | असु-अधांगुलिपुरस्तरुदितपताकेन मा-परस्तरकम्पितपताकेन चापमारोपय वामप्रपारितघ्ुटि दधिणाकृष्टसलटकाघुखाभ्यां आलीढ खानकेन। की डा-परस्परसम्भुखतया व्यावर्त परावक्तित दपाखारपह्वाभ्याप्‌। निजित --दद्वष्टित पताकेन विभ्व--विस्तारितोध्वतरुपताकाम्यामू। सूर्टित--अंचितेन शिरसा ग्लोनदृष्टया जन--पिस्तारितोष्व॑तटपताकरेन | ^ आधातेन-स्कन्धदेश्चात्तिर्थग्गताधस्तलपताकेन 3. किं विच्युतपन्दंशेन पौरषं-स्कन्धदेशे रोलितपताकेन वीरद्टया तस्या. पार्वगतोध्व॑ुखष्ठवीषठसेन एव--उष्वैतरमृगश्षीर्पेण सगीददाः-पृगरश्चीर्पेणापां गावत चतुरेण ॐ.

६१. मनसिज-हृयवषिष्टित चतुरेण प्रेखत्‌--चरधिपताकेन कटाक्ष-कटाक्षेण आद्युग--वामप्रसारितधुषटिदक्षिणाद्रष्टखटकाप्ुखाग्याम्‌ भ्रेणी-अधोभुखतिथेगगतागतमृगशीर्षेण जजेरितं -उ्वंुवधित वियुक्तष्र्वीयखाभ्याम्‌ अथवा पुनःपुन रुरोवर्तितांगुष्ठ चिखेरण मनागपि- उष्वश्ुखकफिचिदधिकतजनीककां मनो-हृद्तसन्दंश्ेन न~ परस्तरकम्पितपताकरिन अध्यापि-रध्व॑तलमुगश्चीर्वेण | न्धुक्ष्यते-हृदत विकसितथ्टेन

अष्टपदी

मामिर्यं चलिता विरोकय बतं वधूनिचयेन सापराघतया मयान निवारितातिमयेन

मा-जद्रुदचितारपद्येन

हयं--अर्धागुलिपुरस्तरपताकेन |

चलिता तिथैगतोष्वेतलमृगशीर्ेण

विलीक्य--भपाङ्गावतिंत भरिपताकेन

बतं-मण्डलाषार भ्रामित द्रवीयुखाम्यां अथवा पश्वदेशातपुरः सप्रानीत परस्पर सम्धुखाधस्तकधचन्द्राम्पाम्‌

वधू -शिरखाकर्पषितांचरखरकायुखेन पराशृ्ेन शिरसा - अथवा खस्तिकोकृतपञअकोसभ्याम्‌

६२ 8 निचयेन -आवर्तनेन कृतिना सापराधतया-अवधूतेनश्षिरसा हृदिस्थां जिना त्रस्तया दृष्टया च॑ मथा-जन्रुद वितालपह्षेन | अपि-भावर्नेन (4. न-पुरस्तलकम्पितपतकिन . | चारिता-टद्रेष्टितपताकेनं |

अति-आवेष्टित रिचिदृष्वगतपताकाम्याम्‌ मयेन- त्रस्तया दृष्टया विधत शिरप्ा १॥

हरहर हतादरतया सागता कुपितेव हरहर विषण्णयादृष्टयाङ्कबटितेनां चितेन श्षिरसा - हतादरतया-षरिः क्षिष्षायुलिद्य भिपतकेनावर्तित किंचिदृध्वंगत

पताकेन सा-पाश्वगतस्रचीशखेन | गता--ऊरध्वतरतियेगगतप्रगरीर्षेण | कुपिता-कुद्धया टया उरोदेशाचरद्ष्वसमानीततिपतकेनोद्वाहित

धिरसा च। ( इव-अवतंनेन

किं करिष्यति किं वदिष्यति साचिर विरहेण

किं धनेन जनेन क्रि मम जीवितेन खृषेन २॥ + किं-ऊधरैतरलोलितपताकेन करिष्यति -नैरधोधु खीएतदहंसाखेन ( किं-उर्पवतरुलोक्तितपताङेन ¦ वदिष्यति-अधरात्परोगतहसासेन सा-पाश्वगतद्घचीयुखेन # |

(4 +, # , ॥॥

1; ५५

1

+ 1

६३ चिर ्रावषितोर्ध्वगतपताकेन विरहेण-चियुक्तप्ूचीधुखाभ्याम्‌ किं- विच्युत कपित्थेन धनेन--अधोष्खचाटि तमुङ्कलेन कपोतेन | जनेन विस्तारितोष्वरतलपताकेन रिं--विच्युत कपित्थन | मम--रनुदरितारपह्छमेन जीवितेन-हृद्रतविकसितयुङलेन सुखन-हृदतपतफिन युकृरया टया २॥

चिन्तयामि तदाननं कुष्लिश्च रोषभरेण चाणपद्यमिवापरि भमताङ्कलं भ्रमरेण ३॥

चिन्तयाभि-हूद्रतसन्दशेन युषरया दृष्टया |

तत्‌-पाश्चगतस्रचीयुखेन

आननं-हनोरधावतिंतालपह्येन

कुरिलश्रु-ताम्रचूडेनेक्षिप्तयाश्चुत्रा |

रोषभरेण-कुद्रया दय उरोदेशाचरदृष्वसमानीत वरिपतक्षिनो दाहित ज्लिरसा च।

रोणपद्य-अधोगुखमदिंत सन्दशेन कमरुवर्वनया |

इव--आषतेनेन

उपरि-रनेरधस्तर्छान्रतपतक्ेन

भ्रमताङलं भ्रमरण-भरमत्‌ भ्रमराभ्याप्‌ ३॥ `

तामहं हृदि सङ्गतामनिरदां भदा रमयामि। [0 [कभ [ॐ [^ किं वननुसराभि तामिह किं बृथा विपामि | ४॥

तां-पा््वेगतघर्चयुखेन

| ६४

अह -जन्रुद रितार पहन

हदि-हुदतसन्दंरेन

सङ्कता-परिहितद्रवीयलाभ्याम्‌

अनिर पारंवारमावेित पतक्िन |

भृदारमयाभि-अविष्ित भरंचिदूरध्वयतपताकेन भिरित त्रिपताकाम्यां | अथवा उस्सङ्गन

किं- ऊर्ध्वतरुलोलितपताकेन

वने-चरुदुष्वेगततरि पताकाभ्यां खस्तिकीटरतपष्टवाभ्यां विस्तारितोध्य तरपताकाम्यां च।

अनुसरामि-अधागुरिचरत्पुरःप्रसारिषेन पतिन

तां -पाश्वगतद्रचीष्ुखेन

इह-उध्वतलमरग्ोषिण

किंचधा-विच्युत कपित्थेन

विरपाभि-नेव्रादधश्चरस्समनाति त्रिपताकेन ४॥

तन्वि खिन्नमसूयया हदय तवाकलयामि तन्नवेन्चि कुतो गतासि तेन तेऽननयामि ।॥ ५॥

तन्वि -हद्रतपञकोशाभ्याय्‌ |

खिन्नं -अंचितेन शिरसा हसुगताधेचन्दरेण बिषण्णया इष्टया | असूयथा-क्ृद्धया दश्याञवतिंत करणेन

हद य-हद्रतसन्दशेन |

तव-अधस्तरषपशषीषै प्रतिदरितपतङेन आकल्यामि-हृद्रतापेष्टित चतुरेण

तत्‌-पाश्वगतघचीयुखेन

न~ पुरस्तलरोलितपताकेन

3 =

६५ वेद्वि दरतसन्दंेन कुःतः-ऊभ्वतरुलोकिव चतुरेण गतासि- शनेस्तिर्थगाबेषटित पताकेन न--परस्तरुरोलितपताकेन तेन - तिथग्ददित्षचीपुखेन ते--अधस्तरसषलीरषप्रतिदितपताकेन जअयनधामि-अ्थोदेशाष्रारपर्यन्तानीत त्िपतकेन अधवा अधरादुरो गतदहंसासेन हद्धपपतकरेन च। अथवा कनैर स्तङीद् पताकेन ५॥ ददरयसे पुरता गतागतमेव मेविद धासि कि पुरेव सक्ष॑श्रमं परिरंभमणं ददासि हेरयसे-पिकोद्या दृष्टवा पुरतो-पूरदशदशितपताकेन गतागतं--पुरःप्रसारिताधोगुहिपतफकिनाकर्षित मृगक्षोर्पेण च॑ अथवा शनैस्तियक्वालितष्रगशीर्षेण एव-रर्पतरमृगशीर्षेण मे-जन्रुदशिताङ्पहटेन पिदधास्ि-अधोडुखहंप्ाखेन कि-ऊ्वतरुरोलितपताकेन पुरा--अविष्टितो धवगतपताङ्ेन हव -आषतंनेन ससंश्रभ॑--पश्वरोलितदोरुदस्तकेन | अथवा निर्हचित शिरसा | परिरम्भण--उस्पङ्गन न-पुर्तङकपितपतकेन ननिपेषे

६६ ददासि--अधोपुखुङ्कटेन, अथषा,

परिरस्भणनददासि--उस्सङ्गनोदरेषटिपताकेन क्षस्यतामपरं कदापि तवेददा नकरषि देदि खुन्दस्दिशौनं मम मन्मथेन दुनोमि ४॥ क्षम्यतां-हृदिखांजरिनाघधूतेन शिरसा अपरं-तियग्दरित ्वचीयुखेन कदापि-रऊष्यंतरमृग्चीर्भेण | तव--अधस्तरसपंशीषं प्रतिदशितपतकेन ददर - पारे अधोशुलिपतकेन करोमि. परस्तरकाम्पितपताङेनाथोपुखहसाखेन देहि-उर्वैतङसशीर्पेण ददोनं- दगंचलावपित तिपतकन | मम-अन्रुदरदितालपह्वेन मन्मधेन--हृयवेष्टित चतुरेण दुनोभि-विषण्णया दवा ७॥ वर्णितं जयदेवकेन हरेरिदं प्रणतेन किन्दु विस्वसुखुद्र सम्मव रोदहिणीरमणेन वणित-अधरात्पुरोगतहसाेन जयदेवकेन शिरसांजलिनावधूतेन शिरसा ह्रः त्रिमङ्गीखयानकेन इद--अधगुरिपुरोदेशद शितपताकेन प्रणतेन--अवधूतेन श्िरषा रलयखांजलिना किन्दु विस्वससुद्र--विष्तारितोर्ध्वतरपताकाभ्याम्‌ | सस्मव--अधोमागादृध्वंसमानीतालपषटवेन रोहिणीरमणेन-उर््वधितार्भचन्दरेण

६७ मरचापे मिदहितः कटाक्षविदिखो निर्माति म्मन्यथाम्‌ | टयामात्मा कुटिलः करोति कवरी भारोपि मारोद्सम्‌। मोहं तावदयं तन्वि तनुतां चिस्बाधरो रागवान्‌ सद्रुत्तस्तनमण्डलं तव कथं प्राणैभैस करीडति २२॥ भरू- भूदाशितारारेन चापे--पुरःप्रसारितमुष्या कर्णाङृशटखटकाष्ुषेन निदितः- पएमैरधक्तरीहतपताफेन

कटाक्ष--कटाक्षेण |

विरिखः--पुर्रषारिताकर्णाहृश्वटकाषलाम्याम्‌ निर्मात-अविष्टित फिञिदुध्वंतरपताङेन

मभच्यथां--हृदरित शिखरेणाधोुखेन शिरसा अभितप्तया द्या रयामात्मा--उरष्यविस्लारित सन्द॑शेनो्वाधोनीत सन्दंशाभ्याम्‌ कुटिखः-रिरस्तथरुदधोगताररेन

कथरी भारः- केशबन्धेन अपि-आवतंनेन

मासेयम- स्कन्धदेश्चात्तियैगाताधोयश्वपतफिनवीरद्ण्या अथवा

[क

हृ्यविष्टित चतुरेण विक्ितयुङकरेन कान्तया दश्वा | मोहे-लोखितेन शिरसा मदिरया द्या तावत्‌-- परोवरतिंतपताकेन अथच ~ परस्तक दर्शितपताकेन तन्वि-ऊर््व॑तरलोलिवद्रचीयुखेन खस्तिकीकृपप्कफोशाभ्यां तलत विस्तारितो ध्वेतरपताकेन विम्बाधरः-अधरोपरिचारलित सन्दंशेन रागवान--चारितांगुष्ठसन्दशेन सीरित्चीुखास्यां |

६८ - सद्र्त-लोलितारपट्येन अथवा किश्चिक्छचितां ुलिकपोतेम स्तनमण्डरटं - खस्तिकी ृतकोश्ाभ्याम्‌ तव--अधस्तरसर्पश्ीषं प्रातिदरितपताकेन कथं तललोलितपताकेन प्राणेः--हृद्तसन्दं शेन मम-हूद्रतपताफन कीडति-धिष्राक्षिप्रकरणेन परस्परव्यावतित हसाखाभ्यां

तानिस्परांखखानि ते तरर्ल्िग्धा दो विभ्रमाः. तद्रक्चाभ्बुजसोर भस खुधास्यन्दी गिरां वक्रिमा सा यिम्बाधर माधुरीति विषयासङ्गपि चेन्मानसम्‌ तस्यां ख्रसमाधि हन्त चिरहव्याधिः कथं वधते | तानि-तिथगृष्वंदितद्वचीधुखेन र्परौ--अङ्गलगप्रपताकेन | सखखानि-हुदतपताकेन भुडखया दृष्टया तेच-तियग्दरितष्रचीयुखेन | तरलटलिग्धादरोविभ्रमाः-किग्धया दृष्टया | तत्‌--पाश्वगतघ्रचीपुखेन चकव्राम्बुज--हनोरधावर्वितारुपह्येन कपरुवतनया सीरभ-नासागतर्दसाखेनोद्वाहिोरसा-च सच--पा््वगतप्रचीष्ुखेन खुधास्यन्दी--अर्ध॑चन्दराचरदध। समानीत भिपतकेन गिरावक्रिमा-अधरत्पुरोगतह्राखेन रोलितसन्दरेन सा-पाश्वगतघ्रचीमुखेन बिम्याधर-कांगूरेन मिकितघ चीध्ुखास्यां अधरोपरिचारितसन्द॑शेन।

+

६९ माघरुरी--दंसास्येन हति-- आवर्तनेन विषयासङ्पि-- मिरितष् चीपुखेन चेत्‌--आवतनेन मानस-- हृद्वतसन्द॑शेन तस्यां--पाश्वेगतप्रचीदुखेन लप्र-मिलिताप्रह्चीष्ुखाम्याम्‌ | समाधि-हद्रतसन्दश्ेन धुकुहया दृश्या | हन्त--विषृण्णया दृष्टया धुत शिरसा च।

` विरह--विपुक्तषवीपुखाभ्याम्‌

व्याधिः-लोकिति शिरसा अभितप्रया च्श्याच। कथ-लोकितपताकेन वधैते--अधय्ितोध्वगतारपह्रेनाधूत शिरसा २३

भ्रपष्टव धनुर पाङ्गतरङ्गिततानि

याणा गुणः श्रवणपालिरितिस्मरेण नस्यामनङ्जयजङ्मदेचत्ााया मस्राणि निर्जितजगन्ति किमर्पितानि २४॥

भरू- भरदरितारारेन

पल्टुवं- पध स्तकेन धसुः--वापप्रप्तारितश्षिदक्षिणइष््खटकायुखाभ्याप्‌ अपाङ्ग--अपङ्कावतितत्रिपताकेन तरद्धितानि-परस्पराचुगच्छचररदुल्पष्वाधस्तरपताकाभ्याम्‌

` अथवा अपाङ्गतरङ्धितानि-कटाक्षेण - बाणाः-वापप्रस्ारितुष्टिद्िणाकृष्टखटकाष्ुखाभ्याम्‌ -

४५०४

गुणः-चरुद धः पपानीत सन्दश्ेन ` श्रवणपालिः कर्णदर्भित भिपताकेन इति- आवर्तनेन स्मरेण-हधविष्टित चरेण कान्तया ष्ट्या तस्यां--पाश्वगतपूचीषुखेन अनङ्ग-हृधविणितचतुरेण जय-उदु हस्तेन जङ्धमदेवतायां-हंसगल्या छस्तिकीकृतपञ्चकोशाम्यां शिस्यांजलिना अवधूतिरसा अख्ाणि-पुरसलपिरलछां गुहि पतकिन वामप्रसारितधुष्िदक्षिणाहष खटकायुखाभ्याम्‌ निनित--उदवेषटितपतिन जगम्ति-पुरस्तलपरोदेशदशशितपत। कनो धतरुभ्रामितद्रचीषुसखेन कि--आवतेनेन | अधितानि-~- क्रिञिदधोंगुटिपुष्पपटेन २४॥ इति मामियं समाप्रा।

| कैेमकभिनिियक सोमम #

५७४

हति श्री गीतगाषिन्दे वतीयः समेः ३॥

[9

यसुनातीरवानीरनिङ्ञ्े मन्दमास्ितम्‌ |

प्राहं प्रेमरसाद्धान्तं भाधवं राधिकासस्वी २५॥ यञ्ुना-उध्वभ्रामितशवीपुखाचरदधःसमानीतश्रेपताकरेन तेनैष पुरः

प्रसारितेन तीरे--चलत्पुरःप्रसारितभनिपताकाम्याम्‌ वानीर-चलदुध्वगतप्रिपताकेन निङुञ्ञ-उ्वंमिलितप्ुलमगशीरषाम्याम्‌

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लो = दण नप ^

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७१ मन्द॑--हदर्धितसन्दशेनद्षएटितिपताफेन ` आस्थित--शनैरधस्तलीकृतपताकेन प्राह--अधरात्पुरो गतर्ह्तास्येन

म~ द्रतपताकेन रस- चतुरेण उद्भान्त--विभ्रान्तया दृष्टया च। माधवं-- त्रिभङ्गीखानकेन राधिका-आकर्षितांचरषटकफामुसेन पराघ्रतन सिरसा सखी--अधस्तलसषशीण हृद्धतपताकेन २५॥

नय

अष्रपदी

न्दति चन्दनभिन्डकिरणमयुविन्दाति खेदमधीरम्‌

व्यारखानिखयपिलनेनगरलमिव कलयति मलयसमीरम्‌ निन्दति-अधरारपुरः कषिप्रकपित्थेन

न्दन ~ परावाततयु्टिभ्यां अद्धलेपितहंप्तपक्षेण अवधूतशिरसा च। हन्दु--उपरितियैग्दधतार्धचन्द्रेणोस्किप्तशिरसा किरणं--तदधोमागे चरूदधःसमानीतत्रिपताकेन अनुविन्दाति - म्छानपुखशगेण दानद््टया हृदतसन्दशेन खेदं--अंचितेन शिरसा फपोरुगताधचन्दरेण अधीरं-चलत्पताकेन व्याल --सपशीर्पेण निख्य-मिकिताप्रठगर्ञीषाभ्याम्‌ भिखनेन-- मिलित चीयुखाम्याम्‌ गररु--पपशीषाचरुदषोगत तरिपताकेन

ˆ~ इव -आवतेनेन

७२ `

कलयति-- हृद्रतपिष्टितचतुरेण शंकितद्ष्टया | मलयसमीरे--उरध्वलितारपटयेन तदुपरितिर्थक्चलत्पुरःसमानीत त्रिपताफेन १॥ सा विरे तव दीना | माधव मनसिजविदिख.भयादिव भावनया त्वधिरीना सा-पाश्चणतद्रवीध्ुखेन विरदे-षियुकष्र्चाखाभ्याय्‌ | तव~ पुरःप्रपारितोध्व॑तरुपताकेन दीना- दीनया म्लानष्ठखरागेण हृद्रपुष्पपुटेन | माधव-त्िभङ्गीखानकेन | मनसिज -हृद्तविष्टितचतुरेण धिदिष्व--वापप्रतारितयुषटद्किणषृष्टवटकापुखाम्पाम्‌ भयात्‌-धिधुतेनरिरपा चरतताकाभ्यां त्रस्तया चवा | इव-भवतेनेन। 0 भावनया--हृदतसन्द गेन घषर दषटया | | त्वयि-पुरःप्रसारिगेष्वतङपताकेन लीना--शनेभिलितकपोतेन सीनकरणेन अविरटनिपतित मदनशारादिव मवदयनाय विदाम्‌ खह्दयम्मणि वम करोति जलनलिनीदरू जालम्‌ अविरल -- पुरस्तरुमिलितांगुलिपताकाभ्याम्‌ निपतित-परिव॑नेनाधस्तलीकतपताकेन मदन-हृद्ताषेष्टितचतुरेण हारात्‌-कांगूरेन स्कन्धदेशात्‌ क्रिचिदधःसमानीत पुरस्तर विरलां

युलि पताकेन वामप्रसारितगुशटिदकषिणाकृश्खटकषुखाभ्याम्‌ इथ--आपतंनेन

>

10 ७६

भधत्‌_ पुरग्रसारितोरध्वतरपतकेन अवन।य--प्रथागुस्युपस्थागुलि खम्धुखपताकाभ्याप्‌ विराटं बिस्तारितिपताकाभ्याप्‌ ख-जनरुदशितारपट्ेन हदय--हृटवसन्दशेन

मभणि--स्तनस्थित शिखरेण

वभ - हृत्सम्धुखलभरं युटिमृ गश भ्याम्‌ करोति--भधोपुखर्हसास्येन स-मिलितष्चीपयुषाय्याम्‌ जलछ-उपरिस्थविश्छिष्टमधोगुहिपताकाम्याम्‌। नलिनी कमरुवतनया

दछ-- चतुरेण

जार आवतेनेन छृतमु्टिना

कुसुम विरिखररारतसपमनस्पचिखासकला कमनीयम्‌ तमिव तव परिरस्मष्ुखाय करोत्तिङ्कुसुमदायनीयम्‌ ॥२॥

कुःसुम--कांगूरेन | विरिख--विश्चिष्गुटिषुस्स्तटपताकेन

, रार बप्रसास्िशटिदक्षिण्रष्टखरकाशुल्ाम्यां पसचनया द्वा

तस्पं-खस्तिकीकृताधोविस्तारितपताकाम्याम्‌ |

अनस्प-आबातैतकिखिदृध्वंगतपताकाभ्याम्‌ |

विलास समपादचा्ा दोरुदस्तकेन

कला परस्पर सम्पखावतित्तपरिवर्तिव दसाखाम्यां। अथवा निर्ह चितेन शिरसा

७४

=

कमनीयं -प्रलेकंषुरस्तियेश्पसारित शोलितालपछ्वाभ्याप्‌

व्रत हृदतसन्दशेन

इव- आवर्तनेन

तव~ पुरःप्रसारितोष्व॑तरपताकेन

परिरेभ--उस्पङ्गन

सुखचाय--हदतपताकैन धङ्रुद्एया करोति--अधोखदसालाभ्याप्‌ |

कुखम--फांगूठेन दायनीयं--कपोरगतार्थवन्द्रस्कन्धानतेनशिरसा प्रसारितस्थानकफेन

वित 3 =

वदति गलित विलखोचनजलखधरसानमकमखमुदारम्‌ विधुभिव विकट विधुन्तुददन्तदलितगचिताश्ल धारम्‌ ४॥

वहाति--स्कर्धगतालपष्येन

च-रृपिस्थेन

गलित-नयनादधोगतचलषिपताकेन

विलोचन--अपाङ्गावतितविपताक्रेन ,

जलधर कषैविष्टोरितनयनगतचतुसस्यां } करुणया दृष्ट्वा अथवा ऊर्वस्थितविरसांयुलि अधोगुलिपताकाभ्याम्‌

आननकमटं- हनोरधायतिंतारुपह्छेन कपहयतंनया

उदार-लोलितारपष्टवेन

चिधु-रउ्वतिर्यक्प्रसारिताधचर््देण

इव--आवर्तनेन

विकश्विधुन्तुद-ऊणनाभोपरि उभनामेन |

दन्त--अधरसमीपे रो लितसन्दशेन

~ 2 00. गः गि तिव मा 8

ननन त-य

1

७१५

दलित--अधचन्द्ररश्रतापरचूडेन अथवा दकितगलितामतघारं-अर्थचन्द्ररप्ताभ्रचूेन तेनैव चरुदधः समानीत त्रिपदाङ्ेन ४॥

विकिखति रहसि छुरङ्कमदेन भवन्तं असमश्ार भतम्‌ प्रणमाति मकरमधो विनिधाय करे रार नवचूतम्‌

विचिलति--पताकोपरिचलस्टशामरखेन

रहसि-उध्वेगुसषठचीमुखेन

कुरङ्गमदेन मृगशीरपादधःसपानीव चरुत्रिपताङेन

भवन्तं - पुरःप्रसारितोत्तानषतक्षिन

रार-वामप्रसारितयुषटिदक्षिणाहृष्टखटकषएुखाम्याम्‌

भूत-शनैरधस्तरसीडृतपताकेन

प्रणमति-कलारस्थांजलिना |

मकर मकरदस्तकेन

अधः--अधांगुरिपताफेन ,

विनिधाय-टद्ेषटिताधस्तटपताकरेन

करे--करदरितपताकेन

च--आवतनेन

चार--वामप्रसारितष्रटिदक्षिणकृषएवय्कागुखाभ्याप्‌ |

नवचूतः-किंचिदधिकतजंनीक उरष्वमुखकपित्येन पषयेन ५॥ ध्यानलयेन पुरः; परिकल्प्य मवन्तमतीवदुरापम्‌

विपति हसति विषीदति रोदिलि चचति श्चतितापम्‌ ॥६॥

ध्यानलयेन-पुङुरया द्वा हृदतपरन्दश्ेन

%# भ, पुरः-परोदधितपतकेन

७98 परिकर्प्य-चनैरूष्याधोगरखपन्दशाभ्याम्‌ भवन्तै-परःप्रसारितोभ्वतरपतकेन अतिव-अविष्टित किंचिदूष्वेगवपताकाभ्यामू | दुरापं-पुरस्तररोलितपतकावरसैनेन इृतयुषटिना विल्पति-षिषण्णथा दृष्टया म्लानद्चुखरगेणाऽधरास्पुरोगतहस्राखन

हसति -प्रसन्नयुखरागेण हाखदृश्या विषीदति-अधोपरुखश्चिरसाङ्वलितेन रोदिति-लोचनादधशरुप्रिपताकेन करणया दृष्ट्वा पयंयति-हुदतविकसितशुलेन खुश्वति-विच्युतपरुषिना। तापं-चलदुष्वेगत्रपताकाभ्याम्र्‌ & प्रतिपदमिदमपि निगदति माधय तव चरणे पतिताहम्‌ | त्वाये विसुखेमधि सपदि खछधानिधिरपि तुते तनुदाहम्‌ ५७

प्रतिपदं चतुरासपुरे गच्छचतुरेण इदं -- पुरोदेश्चदश्चितपताकाम्याम्‌ अपि-आवर्तनेन

¦ निगदति-अधरास्पुरोगतहसाखेन

माघव-त्रिभङ्ीखनफेन तव--परप्रसारितोष्वंतरपताकेन व्यरणे-चरणदशचितपताकेन

पतिता-ललाटसांजरिनाऽवधृतक्िरसा

अहं-जनरुद शितारुपष्टमेन

नि

ओ,

1

9७

त्वथि-पुरःग्रसारितोध्व॑तलपताङ्षेन

विस्ुखे-पराघ्त्तन शिरसा

मयि--हुदतपताकेन

सपदि-धिप्रकपिस्थेन

सुधानिधिः--तिर्यगृर्वद्धितार्धचन्द्रेण |

अपि--आवर्तनेन

तलले-पुरःप्रसारितिति्येगगतपताकेन तचदादं--चलदङ्खर्याङ्कदरवित पिष्लिषशांयुलिपताकाभ्याम्‌ ७॥

श्री जयदेव भणितमिदमधिकं यदि मनसा नटनीयम्‌ दरि विरहाकुलवल्यवयुवतिससखीवचन पठनीयम्‌ ॥८॥

श्री--रनैरूष्यगतालपष्टवेन लयदेव-रलाटखांजरिना | भणितं-अधरास्पुरोगतर्दसाखेन इदं --परोदर्धितपरस्तरुपताकेन अधिक--अविष्टित रिचिदृभ्वगतपताकाभ्याम्‌ | यदि-आवतनेन मनसा-हूदतसन्दशेन नटनीय-रोङितालपष्टवाभ्या्‌ | हरि-तरिभङ्गीयानकेन विरह-वियुक्तघचौपखाभ्याप्‌ | आङ्कख-अङ्गवकितेः वह्टवयुवति-गेपुख्रामितोष्वयुखघचीष्टसेन रिरखारपहरेना कर्षितांचरखटकायुखेन पराव्रत्तन धिसा

४- सखि-अधस्तरपर्पश्ीर्षेण

| 41

व्चनं-अधरास्पुरागतर्ह्ाखेन पठनीयं -अधरास्पुसेगतर्हदसाखेन

क्षणमपि विरहः पुरान सेहे नयनल्निभीटखन खिन्नया यथया ते। श्वसिति कथमसौ रसारुदाखां चिर बिरदेपि विलोक्य पुष्पितता्राम्‌ क्षणं-षिय्युतकपिस्थन | अपि-आषर्तमेन विरहः--बियुक्तप्र्चीएुखाम्याम्‌ पुरा-शनेरतरेष्टितोष्वगतपताकेन न-परस्तरकाम्पितपताकेन सेहे-अङ्गसषीपे शनेरधस्तरीकृतपताक्षेन नयन निमीलन-मीरन निमेषेण विल्या-विपण्णयादृष्टयाङ्कवरितेन च। यथा--पाश्चगतद्वीयुखेन ते-पुरस्तल दकश्षितपताकेन ग्वसिति-उद्ाहितन्षिर्ा कथ-ऊ्वतलारोकिततपताकेन असौ-- अधोगुरिपुरस्तरपतङ्घेन |

रसार दा्वा-चलदृध्येमत त्रिपताकाभ्याम्‌ तपेन च।

चिरं-- अविष्टितोर्वमतपताकेन विरहेपि-वियुक्तदर्चायुखाय्याप्र्‌ विखीक्य--उष्टोकितद्श्या पुषिताग्रां-उष्वैदशित कंगुठेन

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५९

अआगवासो वि पिनाथते पियससी मालापि जारयते तापोपिश्वसितेन दावदहनल्वाखा कशापायतं

सापि त्वद्विरदेणहन्त हर्मीरूपायते हा कथं कन्दर्पोपियभमायते पिरचयन्‌ सा्दरविक्रीडितम्‌।

आवासः--ऊर््वमिरितय्रगशीर्पाभ्याम्‌ विपिनायते-चरदृभ्येगततरिपताकाभ्याम्‌ पिस्तारितपताकाभ्यां प्रिय--हृद्रतपताकेन

सखी-पाश्चसििताधस्तरसरपरीर्भेण

मालापि-पुरस्तान्पण्डलाक्ार भ्रामित द्र्चीुखाभ्यम्‌ | जालाथते-सम्धुखकरकटेन तापोपि-चरद्ष्यगतपता स्याम्‌ विधुतशिरपा अभितप्ता दृष्टया च)

श्वसितेन-उद्वाहिपोरसा दावदहनञ्वाला-चलदूरध्वगतपताकरिन कलापायते-आबतेनेन कृतपु्टिना सापि-पार्थगतघ्रचीघुलेन त्वत्‌-उर्ध्वतरुषिस्तारितपताकेन विरदेशभ-वियुक्तष्एचीयुषाभ्याम्‌ | हन्त-विधुताशिरसा विषण्णया दृष्या हरिगी-मृगस्तुताचायां मृगशीर्षेण च। रूपायते-शनैरूध्वाधोगतसन्दशाभ्याम्‌ हा-विधुतिरसा बिषण्णया दृष्टया कर्थ-प्य॑तरलोकितपताकेन कन्दर्पः-हुधावेष्टितचतुरेण

+ अपि-आवतेनेन।

८9

यमायते-प्रोरोरितष्वीधुखेन अथवा दश्षिणदिग्द्शितदवीधुखेन गृ्िशिखरेण

विरचयन्‌--अधोष्ुख सखेन

रादंटविक्रीडितम्‌- सिद्चविक्रीडितकरणेन

अष्रपदौ स्तनविनिहितमपि हारद्खदारम्‌ सामनलते करदातनरपि भारम्‌ १॥ स्तन-खस्तिकीदरतपश् शेचाभ्याम्‌ विनिहितं शनैरधस्तसीतपताकेन अपि--आवतेनेन हारं-स्कन्धदेशाबरनाभिपर्यन्तानौतखटकाधुखाम्याम्‌ उदार--रोरितारप्येन सा- प्रगती मुखेन मनुते--्दतसन्दशेन कुदा ऊषवैयुखशुकतुण्डन तनः--अद्गदशितर्हसपक्षण अति किचिदष्वगतारेष्ितपताकाम्याम्‌ भारं--अङ्गसमीपे शनेराबे्िताधस्तरीडृतंपताकाभ्यम्‌ १॥ राधिका विरहे तव केदाव राधिका-आकर्षितांचरुखटकाग्चुखेन पराश्ृततेन चिरसा चिरहे-वियुक्तघवीदखाभ्यम्‌ | तच पुरःप्रपारितोर््वतरुपताकरिन केराव-पेष्णवखानकेन केशबन्धेन

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टे [नि , (0 पन्न - ~

.

11 ८१

खरसषमस्णमपि पलखयजपङ्म्‌

परयति विष्व वपुत्रि सराङ्भम्‌ २॥

सरस--अविष्टितचतुरेण

मशणं--चरितांगुष्हसाखंन

अपि- आवर्तनेन |

मलयज _उर्ष्वगतारपलयेन चरुदष्य॑गतपताकाभ्यां च॑ पङ्क-प्रावर्तितधुष्टिभ्यामङ्करेपितहंसपक्षेण पटयति-अपाङ्गार्षित चिपताक्षेन

विषरभिय-पिघुतश्िरसा सर्पशीषाचलठदधस्समानीत त्रिपताक्षैन | यपुषि-अङ्कदरदितर्हसपक्षेण

सशाङ्क-शङ्धित्टयाद्गश्चङ्कतेन २॥

ग्धसितपवनमलैपमपरिणादहय्‌ | मदनदहनभिव वहति सदाहम्‌ ३॥

ग्वासित--उद्राहितोरसा

पवन- तिरयक्प्रमारितचरुतपुरःसमानीतव्रिपताकेन असुपम-यामतिर्यवप्रस्नारित दक्षि गपुरःप्रपासिताखपह्वाभ्याम्‌ | परिणादं--वस्तारितिपताकाम्याम्‌ |

मदन--हृधवेशटितचतुरेण

` देहनं-धिष्िष्टंयुरिचरद्ध्वैगतपतकिन

इव आवतंनेन घहति--स्कधगतालप्हटुमेन | सदारं अभितप्षया दृष्टया श्वासोच्छरतेन ३॥

८२ दिरिदिदि किरति सजलकणजाम्‌ नयननलिनमिव विगरित नारम्‌ ४॥

दिरिदिरि-प्रतिदिग्र्वित्ठचीुखेन |

कफिरति-नयनादधस्समानीतानामिक तिपतकरेन क्षिप्तां ुलिगरकरेन

सजल--रष्व॑सित विशिष्टंगुलि अषोमुखपताकाभ्याम्‌

कण--क्षिपरष्ुकलेन

जारं भधस्तलपुरोलालितपताकाम्या्र |

नयन-अपाङ्गाघतिंत तिपताकेन अथवा नयनद क्षित तिपताक्रेन।

नलिने-कमलवर्तनया

इव--अ बरत॑नेन

विगखिति-मिरितगुखावरतितपरायतिंत फिचिष्ठियुक्त द॑साखाभ्याप्‌ | अथवा उद्षटितपताकेन अथवा उदवष्टितकर्रीमुखेन

नाल--एनैरुूष्याधोगच्छद्यरत्सन्द॑तेन अथवा रर्ध्वाधोगच्छद्धम प्रषरेण ४॥

नयन विषयमपि किसर्यतल्पम्‌ | करयति विदित हतादानकस्पम्‌ ।॥

नयन--अपाङ्घावित त्रिपताकेन

विषथ-अधोगुलिपरस्तरुपताकेन

अपि--आवतेनेन |

किंखल्य- पष्टवहस्तकेन

तस्पं-कपोरगताधचन्द्रेण स्कन्धानतेन शिरसा अथवा सुप्र स्थानकेन |

कलयति--हुवविष्टितचतुरण

विहित~-प्नरधस्तलीद्रतपताकेन

८२

हतारान-धिश्विष्टचरूदंगुस्युध्वगतपताकाभ्याम्‌ } करप - पिलितमूचीयुखाभ्याम्‌ ॥) त्यजति पाणितलेन कपटम्‌ षालटरारिनभिव सायमरोटम्‌ ।॥

भि [49

त्यज ति--सनेःकिचिद्धिक्षिप्न षिच्धुतश्रुणटिना

न--पुरस्तलरोङितपतकिन

पाणितटठेनकपोलं _ करद ध्रितपताकेन कपोरगताधचन्द्रेण स्कन्धा नतेन शिरसा

वारुदहारिनं- तिर्यगृ्यदरितारधचन्दरेमोरिक्षप्त शिरसा च।

इव प्रावतेनेन

सायं सामदेशादक्षिणमानीत परिप्रामिषर्चायुखेन `

असख समशिरषा परप्रघ्तारिताधस्तरस्तन्धपतकाभ्याम्‌

हरिरिति हरिरिति जपति सकामम्‌ विरह विदितमरणेव निकामम्‌ ७॥

द्रिः--तरिभङ्गाखानकेन

इति - आवश्टिपताकेन

जपति--अर्धपुुलया दध्या दक्चादितांयुष्ठ सन्दशचेन सकामं--हयविष्ित चतुरेण

विरह--वियुक्तषचीयुखाम्याम्‌ | विहित-श्वनैरविष्टिताधक्षलीकृतपताफेन मरणेव--अश्छीरुतवात्याज्पप्‌

निका्म--हृदरवसन्देेन द्नैरवतित सिचिदूषवैगतपताकाम्पाभू

1,

श्री जयदेव भणितभिति गीतम्‌ सुखयतु फेरवपदसुषनीतम्‌

श्रीः-शतैः किविदृष्ववरुपहटवेन जयदेव कराटथ्यांजरिना अवधूतक्षिरसा भणितं-अधरास्पुरोगतदंसाश्येन सुखयतु-हृद्तपताश्निन भ्ुकृख्या दृष्या च। केदाव-केराघन्धेन | पद--चरणदरगितपतकिन उपनीतं ~ पष्पपुटेन |

स्मरातुरांदैवतवेष्यह््य त्ववज्गसङ्गाष्तमान्रसाध्याम्‌

वियुक्तवाधां रुषे राधां उपेन्द्र वज्नादपि दारुणोऽसि स्मरातुरां हयषिष्िनचतुरेणाधोष्खेन शिरसाभितप्तया च्छया _ दैवत-- रकाटथांजरिना वैद्य-प्रकष्टुखित चतुरेण हद्य-हृदतपन्दे शेन लोहिताहरपह्छेन विकोश्चया दृश्या त्वत्‌-- परस्तरदधितपताकेन अङ्ग --अङ्खदरित्हसपक्षेण सङ मिलितदचीदुखाभ्याय्‌ अभमत-अधचन्द्रेण माच्च उष्वयुखद्रचीयुखेन साध्यां-आवतमेन कृतयुष्टिना विुक्त-परावर्तितपताकरन। बाधा-रोकित शिरसा गरनदष्टया

८५ छुरुषे--अधोश्ुखहं सखेन न-परस्तरकपितपताकेन राधां-खसिकीकृतपञ्चकोश्राभ्याम्‌ उपेन्द्र-वेष्णवश्थानकन वञ्जात्‌--स्कंधप्रमीपद्ित परोरोलितपताकेन शिखरेण बीरद्टया अपि-आवतनेन दारुणः भयानक दृष्या असि-ऊभ्यंतट पुरश्धितपतरेन कन्दर्षञ्वर संज्वराकुःलखतनोरश्च्यमस्याश्विरम्‌ | चेतश्चन्दनचन्द्रभःकमलिनीचिन्तास्ु सन्ताम्यति किन्तुह्ा न्तिवरनदपितरुतनु त्वामेकमेव भिय ध्यायन्ती रहसिध्थिता कथन पि क्षीणा क्षणं प्राणिति ^+ कल्दवे-हव्वेष्टितचतुरेण स्वर-विधुतशिरराचरुषपताक्ाभ्यां अभितप्तया च्छया संल्वराकुल-अभितपया दृएटवाङ्गवङितेन तनोः --अङ्गदभिंतहसपक्षेण | आ्यर्य-अद्धुतष््टया हुसंखपर प्रचीुखेन ~ अस्याः-अधत्तरपपशीषं प्रति सन्दरितपतकिन चिर-अविषटितो ध्व॑मतपतकेन चेतः- हृद्तसन्द शेन चन्दन-उद्े्टितयुषटिम्यां अव्रधूत शिरा चन्द्रमाः--अधंचन्दरे >~ कमलिनी--कमरवतैनया

सवार द्ठर स्य - दत ~

ससस 7 कशी अव्‌ ग्निः

८६ चिन्तासु-कपोरगतार्धचन्दरेण स्कन्धानतेन शिरसा शुन्या न्ताम्यति-ग्ानदश्याङ्गवरितैः। किन्तु-बिच्युतसन्दंशेन

न्व गर. -

छ्ान्ति-द्खान्तया दृष्टया | , ( वरोन-रनैरधस्तरीकृतपतकिन ` | हीतरतनँ-कमरुवतेनया मिरितष्ठचीष्ुखाभ्पाम्‌ अङ्गदश्ित |

हंसपक्षेण त्वां -पुरस्तलप्रसारितोध्यतरपताफेन ¢ एकै --उष्वेुखष्नचीषएखेन ( एव--उष्वैतलमृगशीरषेण | प्रियं--दृदतपतकिन | ध्यायन्ती -- हृद्तसन्दंशेन घुङखया दृष्ट्या रहसि ऊ्वयुखपिर्थग्द पितश्च खेन अथवा उध्वेयुखष वी एखे- |

नो्यस्थितमिरिताग्रमृगक्ीषाभ्यां (~ | स्थिता-श्नेरधस्त्लीदकृतपताकेन | कथमपि-आवतिंतपताकेन

क्षीणा-ऊर्भ्रभुखरोरित शुकतुण्डे क्षणं-- चिच्युतकपित्थेन प्राणिति--उद्वाहितोरसा

अहमिह निवसामि याहि राधां अनुनय मद्वचनेन चानयेधाः।

इति मधुरिपुणा सखी नियुक्ता स्वथमिदमेल पुनजेगाद राधाम्‌ 6 जहं-नत्रुद वि तारपद्मेन ५. ५१ ^

4,

८५७ हृह-अर्धो गुटि पुरस्तरपताकेन निवसाभि-ररनैरधस्तलीडृतपताकेन याहि तिर्यक्तरविष्टितपताकरन राधां--खस्तिकीकृतपद्मकोशाभ्याम्‌ अलनय-हृत्स्थांजरिना मद्रचनेन--हृत्त्यपतकफेनाधरात्पुरोगतहससखेन | ' च-आवर्तनेन आनयेभ्राः-तिथक्स्थिताकपित प्रणरीर्ेण इति-आवर्तनेन | मधुरिपुणा-त्रिमङ्गीस्थानकरेन | सम्वी-अधस्तकस्शीर्पेण हृदतपताकेन नियुक्ता-तियंक्तलविष्टितपताकेन खथं--हुदतपताकेन | इदं-उरध्वतलम्रगरीर्षेण एत्य-आकरषितमृगशचीर्पण अथवा चतुरोपरिमिकितचतुरेण पुनः-वारंवारावतेनेन जगाद-अधरात्पूरोगतरहसाखेन राधां- अकर्विर्ताचरखटकभुखेन परावततेन भिरपा

[0

अष्टपदी १० धति मख्थसमीरे मदनशुपनिधाय स्फुटति कुखमसमूहे विरहि हदयदलनाय

वहति --पुरःप्रपारिताधस्तर रोलितपताकाभ्याष्‌ मलयसमीरे ऊघ्नंस्थितालप्टताचरुदधस्समानीत त्रिपताकेन

<

मदन--हूदरतावेषटित चपुरेण | उपनिधाय--शनैरधस्तलीडृतपताकरेन स्फुटति- विक्रपिपयुहखेन कुखुम--कामूरेन समूहे-पुरोषिस्तारिदपताकाभ्यापर | विरदि- वियुक्तष्रचवीयुखाभ्याम्‌

हदय. हुदतसरन्देन

क. _ #

दलनाय पताकोपरिमिरदितपतकिम ¦ अथवा रेचितहस्तकेनरौद्रया रण्या च| १॥

सखालविख्ीदति तव विरहे वनाशी |

सखि-वामाधस्तरीकरतसर्षशीर्पेण दक्षिणहृद्वतपताक्षिन सीदति -म्छानयुखरमगेणाधोडुखत्निरसा ग्कानद्श््या च| तव--अधस्तलीकृतस्पतीषपरतिदितपताकेन विरदै-षियुक्तश्रचीुखाभ्याप्‌ वनमारी-स्कन्धोपरिदिशाजाचुपर्यन्तानीत खटकायुखाम्याम्‌ दहति रिरिर्थूवे जस्णयघुकरीति पतति भदनिरिखे भन सि बहुमति २॥ दहति-ऊ्वगतचरत्पताक्राभ्याम्‌ रिदिरमयुखे -पियगूर्वस्थितार्धचन्द्रादधःसमानीत चलवत्रिपता- कैनोर्किप्रश्चिरसा मरण -अश्ीरल्राद्यक्तम्‌ | अनुकरोति-अश्चितेन शिरसा कपोरगतार्धचन्दरेण पतति-टदरैषरित करमरीप्रुखेन | मदन--हूदरनवेषितचतुरेण

1४ ८९

विदिख-काँगूलेन स्कन्धदशाकिचिदधः समानीतपिरणां गुलिपरस्तल पताकेन बामप्रसासितपुशिदक्षिणाकरणाङ्ष्टवरकाष्ुखाभ्याम्‌

मनसि-हूदतप्नन्द नेन

यह्-अवेषटित किचिदृध्ैगतपताकाभ्याम्‌ |

दुनोति--विषण्णया दष्टयाङद्खवर्तिन २॥ ध्वनति मघुपससरदे श्रवणमपि दधाति मनसि कलितद्दये निरदिनिदिशूजसुपयाति ॥२॥

ध्वनति-अधराप्पुरेगतहसाखेन

मधुप--च्रमरण समूरै--आघतेनेन छतदुषटिना अथवा अध्तरोपरिलोरितपता काभ्याम्‌ |

श्रवणमपि दधाति-कणंखत्रिपताकेन मनसि-दृतसन्दशेन कलित--अपरष्टितपताफेन विरहे-षियुक्तष््वीयुखाभ्याम्‌ | निरिनिशि-प्रसारिततिर्यग्गतोर्भदुषपतक्रिन | रजं-विधुतेन शिरसा चलदु्वगतपरिश्िशं युङिपताकाभ्याम्‌ अथवा प्रफोष्रेखित चतुरेण उपयाति--अविष्टिताधत्तरपताकास्याध्‌ ।॥ ३॥ वसति विपिन विताने सजति रुटितिधाम | सरति धरणिदा्य॑ने बह विपति तव नाम ४॥

घसति- रमरि ताधक्ललीकृतपताङेन विपिन--चरदुध्मेगतत्रिपताकाभ्यां प्न

९०५

वितने-उर््वमिलिताग्रमृगक्षीषीभ्याम्‌ | त्यजति- उद्वेष्टितपताकेन ठकखित-रोरितालपष्छयेन धाम- उष्वमिरलिताग्रमरगकीरषपभ्याम्‌ ल्टुठति-रोखितशिरसाङ्गष रितेन धरणि-परस्तसाधोद दित पताकेन | चायने-प्रसारितखानकेन युङ्खया दण्वा | अथवा कपोर

गतार्धचन्द्रेण स्कन्धानतेन शिरसा | बहु--अविष्टितक्छिचिदृ्यैगतपताकाभ्यां विरपति-स्लानघुखरागेण विष्ण्णया द्या अधरास्पुरोगतदहंसाखेन तव--अधत्तरसपेश्ीषैप्रतिद वितपतफिन नाम-अधराद्पुरोगतहसाखेन ४॥

भणति कविजयदेवे बिरह विरसितेन मनसिरभसविभवं हरिरूदयतु खक्रुतेन

भंणति--अधरास्पूरोगतहक्रासेन कचिजयदेवे-लराटखकपोतेन

विरह बियुक्तदचीयुखभ्याम्‌ विरसितेन-लोलितारपष्टमेन मनसि--दहृदतसन्दंशेन रभसविभवे--हृदतविकसितप्रृरेन . हरिः-तिभङ्गीखानकेन उदयतु-परनैरूष्वगतारपष्वाभ्याम्‌ सुकरतन-अधो्खषिकसितुटेन ५॥

९१ पूर्व यत्र समं त्वया रतिपते रासादितास्सिद्धयः

तस्मिन्नेव निङ्ुञ्जमन्मथमद्ाती्े पुनम धयः ध्यायस्त्वामनिरा जपन्नपि तवैवालापमन्त्रावर्टिं

भ्रुयस्त्वत्कुचकुस्मनिभरपरीरंभाशतं वाञ्छति

ूर्व-- अवेष्टितोर्ध्वगतपतिन

यच्च पार्गतश्चचीमुखेन तिर्थश्दण्या | सम-मिलितषचीयुखाभ्याम्‌ | त्वया--अधस्तलीशृतसपशीषं प्रतिद रतिपतेः--हुवषिष्टितचतुरेण आसादिताः-अधष्तरीकृतवेष्टितपताकेन सिद्धयः--आवतेनेन कृतय्ुष्टिना तस्मिन्‌--तिर्थग्द्ितद्रचीषुखेन ! ए्व--उष्वंतलमूगभीर्पेण

निज -- चलदृष्वानीतरताकरपष्टवाम्यां मन्मथ -- हुयापेष्टित्त चतुरेण

महा तीयै--पुरः अधोषखावतितघ्नवीएुखाभ्याम्‌ पुनः--अविष्टितिपताकेन

माधवः---तिभङ्गीखानकरेन

भ्थायन्‌-हृदतसन्दशेन

त्वा--अधत्तरस्पशौषद वितपताङेन अनिद्राजपन्‌-- निमीरितदष्वाहुचारितागुषठन्दसेन अपि-आवतंनेन

धि

तपताकेन

+ तवैव--अधस्तरसर्षशीर्षदश्चितपतकिन

९२

आराप--आरकंपितन शिरसा अधरास्पुरोगतहसासखेन मन्त्रावलि-कणखहसास्येन

भरूयः--आपेष्टितपताकेन त्वत्‌-अधस्तलसर्पशीरपद्पितपताकेन |

कु चङ्कुस्म-खसिकीकृतपद काशाभ्याम्‌

निभरपरीरंभ -गादोस्सद्गन

अग्रत ~ अधचन्द्रेण

वांछति - हृद्रतदंाखेन पुनःपुरोनीततेनैव

त्वहाष्पेण सम समग्रमधुना तिग्मांदुरस्तङ्गती , गोविन्दस्य मनोरथेन समं पराप्त तमःसांद्रतान्‌

कोकानां कर्णस्वरेण सदशी दीघा मसधा्थना तन्ुग्धे विफलं विलम्बनमसौ वाोभिसारक्चषणः

त्वत्‌-अधस्तरसर्षश्चीषपतकेन

बाष्पेण-- नयनाचल्दधस्समानीतत्िपतकेन खम-मिरितष्चीषएलाभ्याप्‌

समग्र-आवतेनेन कृत्रष्टिना

अधुना--डर्प्वतलम्रगशीरपेण

तिग्मांद्यरस्तङ्गतः-- पर्वदेशाचलदपरपार्थेसमानीत्‌ पर्चाधुखेन गोविन्दस्य--तरिभङ्गीखथानकेन | हदरतसम्दरेन समं-पिरितद्चीषुखाभ्यापर्‌

प्राप्तं-चतुरोपरिचतुरण

तमः साद्रतां-ऊधरैवि्तारितपतकरेनमिरिताधस्तलपताकाभ्यां | कोकानां--हंसाखेन

करण कफरुणया दश्वा |

९१ खमेन--अधराल्पुरोगतर्हपरास्येन | सदरी-मिरितद्टचीधखाम्याम्‌ | दीर्घा--शमैरावेष्टितोध्वंतटपताकेन मम-जवुदरितारपह्छषन प्राधना-हदिखांजरिना तत--पुरोदेशदितष्ठचीमखेन सुग्धे-खस्तिकी कृतकं गूरामभ्याप््‌ विफटं-विच्युतकपित्थेन ` विल॑वनं--विल्बगत्या | असौ- परोद िताधस्तरुपताकेन रम्यः- रोकितसन्द शेन अभिसार-अधांगुखिचरष्पुरःग्रप्तारितपताकेन

आकिः

क्षणः-- स्यं युखशिचिदिच्युतसन्द॑ेन

अष्टपदी ३३

रतिसुखसारे गतमभिसारे मदनमनोहरवेषम्‌

कुरानितम्बिनि गमनविस्बनमनुसर हृदयेदाम्‌ ॥१॥ रति-मिलितांगुितवलतरिपताक्राभ्याम्‌ अथवा लरितदध्रयोस्सङ्खेन च। सुख --हूदतपताकेन घहृलया दशया | सरे--एनैरावतंनेन एृतयुष्टिना गतं-अविष्टितपताकेन अभिसारे-उर्वमिलिताग्रमगरी्शभ्याम्‌ | मदन-हूववेष्टितचतुरेण मनोहर-रौलिताङूपषटमेन

९४

चेषं ठर््वाधोएखसन्दंशाम्याम्‌

न--पुरस्तल कम्पित्तपताकेन

कुर--अधोशुखह सास्येन

नितम्बिनि-- नितम्बहस्तकेन |

गमन-अधोगुटिपुरःप्रसारितपतक्षेन अथवा उर्यतरतिर्थग्लोरित मुगश्चीर्षेण

विलस्बनं-करिहस्तचा्ा

अनसर--अवधृतक्षिरसा अधागुलि पुरःप्रप्तारितपताङेन

तं--पार्धगतशचीष्खेन

हदये हृद्रतसन्दशेनायतैनेन कृतपुष्टथुपरिशेखरेण १॥

धीरसमीरे यञुनातीरे वसति वने वनमारी | गोषीपीनपयोधरमर्दन चश्वल कर युगराटी

धीरसमीरे-अधस्तर परप्रस्ारित किचिष्टोटितपताकाभ्याम्‌ यसुना-उष्वंामितद्चीधखचरदधः प्मानीत विषतक्षिन भकर- ~ हस्तकेन |

तीरे- परथरससारित त्रिपताकफाभ्याम्‌

वसति--रदनेरषिष्टिताधस्तसीकृतपताकाभ्याम्‌

चने- पहययेहस्तकेन प्र्रारितपताकाम्यां

वनमारी-स्कन्धादुपरिदेशाज्ञादुपयन्तानीत खटकायुखाभ्याम्‌ |

गोपी--शिरखारपद्छेन। कपितांचलखटकाष्ुखेन पराषृत्तेन शिरपा कान्तया इष्ट्या

पीनपयोधर-हृदिस्थित खस्तिकीढृतारपहवास्याम्‌

मदैन--पक्षस्युपरि शनैमेदितपताकेन

चंचल--कम्थितपताकेन

९५ कर-करदितपताकेन य॒ग-पुरस्तलार्धपतकिन राटी-ति्यकपरप्रपारितरोरितारपहवाभ्याम्‌ नामसमेत क्रुतसङ्कतं वादयते गदु वेणुम्‌ ! बहुमतुने ननु ते तनुसङ्गतपवनचाल्ितमपि रेणुम्‌ ॥२॥ नाम-अधरास्पुरोगवहसरास्येन समेतं -प्रिलितघ्चीष्रषाम्याम्‌ क्रत-अधोुखहसास्येन सङ्केतं - तियेग्द शितद्चीुखेन वेणु-उम्शधारणेन वहु-अषिष्टितफिचिदृष्वेगतपताकाम्याम्‌ | मनुते-हृहतसन्द्‌शेन नस--एनैरधस्तस कृत चतुरेण ते-पुरःप्रषारितोष्वंतरूपताकेन तनु-- अङ्गद रित ्पक्षेन सङ्गत मिलित वीुखाम्याम्‌। पवन--तियैकप्रसारित चरस्पुरस्समानी तत्रिपतक्रिन चटितं--कम्मितपताकेन अपि--आवतैनेन रेणुं- निष्पेषिताधोयुखसन्दशाभ्याप्‌ २॥ पतति पत्रे विचलति पत्रे राङ्कितमवदुपयानम्‌ | रचयति दायनं चकितनयन पदयति तव पन्थानम्‌ ॥२॥

पताति पतन्न-तियकभरसास्तिन चलद्पुरस्समानीतर्दसपक्षेण

| ९६ विचरतिपन्ने-थाव्तितपरावतिंत विस्तारितचतुराभ्याम्‌ राङ्कित- शष्धितदष्टयाङ्गग्ङ्कितेन | भवत्‌- पुरप्रपारितोष्व॑तरपताक्रेन | उपय।न- तियगाकपितस्गक्ीर्षण रचयति-परस्परसम्धुखावर्तित परावर्तितदसाभ्याम्‌ | दायनं- कपोरगता्थचन्दरेण स्कन्धानतेन शिरपा अथवा प्रसास्ति

स्थामेन भुषुरया दृष्टवा | ` सचकितनयनं त्रस्तयारष्टवापाङ्कावतितचतुराम्याम्‌ पटयति कान्तया दृष्टया अध्यधिकाचार्या | तव-पुरःप्रसारितो ध्वतङपताकेन नथानं-उधयैतरतिरयग्मतमरगशीर्पेणा ष्यथिकाचार्या ३॥ खुखरमधीरं यज मञ्जीरं रिपुमिव केटिश्ुलोलम्‌

कि

चद ससखि कुज साताननदृएुजं राल्य नालछानचारम्‌ ॥४॥

सुणर--अधराप्पुरेगत चलदद्रसास्येन | अधीर चरप्रिपताकेन | लयज--फिचिद्धिक्षिपन विच्युतशु्िना मजीरं-गुस्फपरिदभितार्ध॑चन्द्रेण | रिपु-स्कन्धदेशात्तियग्गताधस्तरपताकेन इव--आवतंनेन केलि-उत्पङ्केन रकित दृश्या खुलोलं-रोरितारुपहषेन चल--ऊ्व॑तरतिथग्मतयरगरापिस्याप्‌ अथवा अधायि पुरप्रसा रितपताकेन सखि-अधस्तरीढृतसषरीरपेण |

दै

18 ९७

कुज उर्प्मतलताकेरेण कतपल्ेनोष्व॑मीखिताग्रसगशीषाभ्याम्‌

सतिमिर-ऊष्वेति्यगगतपतकेन

पुंज--मिकिताधस्तरपताकास्यापर्‌

रीय पाश्वदेात्पुरस्समानीत परस्परसम्युखावतितपरावतित खट. कापुखाम्यां च।

नीट निष्वोकं- उर््वप्रसारितचलत्सरन्दशेन आकषितांचलखटका- मुखेन पराद्त्तन शिरसा ४॥

उरसिषुरारे रूपदितदहारे घन इव तरलबलाके तडिदिवपीते रतिविपरीते राजसि सुक्रलविपाके ॥५॥

उरसि- ृद्तपताकेन

खुरः त्रिमङ्खीस्थानकेन

उपदहितदारे - स्फधोपरिदिशाच्छनेजातुपर्थन्तानीव खटकमुखाभ्याम्‌।

घन ऊभ्वस्थिताधः प्रसृतांगुरिपताकाभ्याम्‌

इव -अवतेनेन

तरलबलाके तियैक्प्रसारित चरुत्पुरःसमानीतहं पक्षेण

तडित्‌-उर्ध्वपुरःप्रसारिताधस्वलचरतिरथग्यातश्रिपतकरेन अथवा पुनःपुनः खस्तिकाडरत षिच्युतचलत्रिपताकाभ्यां

हव.--आवतैनेन

पीते--करभोपरिचालितसन्दसेन

रति- मिलिता गुितरतरिपता काभ्याम्‌

विपरीते-विनिमयेनोष्वांधःकृतमिरितांयुकितरतिपताकाम्यां

राजसि--रोलिवारुपद्छ्रेन

खुकरल--अधोयुखविकसितयुरेन

विपाके--दतैरधस्तलीकृतपताकेन ।॥ ५॥

11

९८

विगखितवसनं परिहतरदानं चरथ जनम पिधानम्‌।

किसलटयरायने पङ्कजनयने निधिभिवद्षनिदानम्‌ विगलित कटिस्थपरादरत्तफतंरीपुखास्याम्‌ वसनं-कटिपाशदेशचाप्पुरस्समानीतसन्द॑शभ्याम्‌ परिष्टवरदानं --उद्ष्टिपताक्गेन कटिर्थिताधचन्द्राभ्यां घटय--मिरितद्चीष्ुखाम्याम्‌ } जघन--नेतम्बहस्तकेन अपिधानं-चनेरावतिताधस्तलपताकाभ्याय्‌ | किसरख्य--पह्बह स्तकेन हायने-कपोरगतार्धचन्दरेण स्कन्धानतेन शिरसा अथवा सुप्र

स्थानकेन

पङ्कज--कमरुवतनया नयने--अपाङ्गावतिंतचपुरेण निर्धि- आवर्तनेन एृतयुषटिना ह्व--आयर्तनेन हर्ष हदिस्थविकसितयुृलेन हृएटया दष्टा | निदानं-अविष्टिताधस्तरचतुरेण

हरिरभिमानी रजनिरिदानीभियमपियाति विरामम्‌ ।` कुर मम वचनं सत्वररचनं पूर्य मधुरिपुकामम्‌ ७॥

हरिः- प्रिभङ्गीस्थानकेन

अभिमानी-आधूतरिरसा शनैरुष्वंगतारपष्वेन रजनिः- पर प्रसारितांगुटितरतियक्पताकरेन हृदानीं - किचिदधस्समानीनेोष्वतरम्रगरर्षेण

हयं --अ्धागुहिपुरस्तरुदाश तपताकेन

९९ ` अपि--त्रावतेनेन याति--तिरयगावूतिंत पताक्रेन विराम-रनैरावर्विताधस्तरपताकेन कुस्‌--अधेषएुर्हसास्येन मम--जघ्रुदरिताटपद्येन वचनं अधरात्पुरोगतहसास्यन सत्वर पारं बार त्वरथापेष्टित पताकेन। रचन परस्परं प्ररोगच्छवतुराभ्याम्‌ पूरय शनैःपुरोरोकिताधस्तरुपताकाम्याम्‌ मधुरिपु-त्रिभङ्गीस्थानकेने | कामं--शनेरापेष्टित हृद्रतचतुरेण सिग्धया दृष्या ॥। श्री जयदेवे क्रतदहरिसेषे भणति परमरमणीयम्‌ पश्दितष्टदयं दरिमतिसदयं नमत सुक्रलकमनीयम्‌ ॥<॥

श्री--शनैरूध्वानीतारूपद्छरेन जयदेवे--रुलाटस्थांजलिनावधूतयिरसा कुत --अधोष्ुवहंसास्येन

हेरि-विभङ्खी स्थानके

सेच हुस्स्थांजलिना मणद्नि-अधरा्पुरो गतहंसास्पेन परम--अपरे्ितकिंचिदृ्वंगतताकेन रमणीयं- सोहितारपमेन प्रसुदित-हृस्स्थविकसितमुषरेन हृष्टया इष्टया | हृदथ-हद्रपसन्द॑शेन हरि-जिभङ्कीस्थानकेन

१००

|,

अति--अपिषटितक्चिचिद्ष्वंगतपत्ताकाभ्याम्‌ सदय--हूदतपताकेन क्लिग्धया दएया | नमत- रराटस्थकपोतेनाचधूत क्षिरसा सुक्रत--अधोष्ुखव्रिकनिपपरुकुरेन कमनीयं-- लोरितारुपह्वेन विकिरतिसुहुः श्वासान्यां पुरोखदरीश्चते पविरातिसुद्वः कुजं शजन्घुहुषडताम्यति रचयतिसुहर्शय्यां पय।कुरं सुहरीक्चते मदनकदनङ्कान्तः कान्लेव्ेयस्तव चतैते |

विकिरति-नासात्पुरोकषिप्र ्रिपताकेन

सुहुः-शनैरावर्तिततरिपताकेन

श्वासान्‌-श्वासोच्छसेन

आरचापुरः-पुरोदशितखचीभ्रुखेन ि

सुह्ः-रनैरावर्तितपताक्षेन .

इ्षते-विकोरया दण्या |

पविरहाति--अधोगुलिपुरःप्रसासितिपताकेन हंसगत्याचार्था |

मुहुः - पूषैषत्‌ |

डुंज- चलष्टताकरो व॑ समानीत शगशीषीम्याप्‌

गुञ्धन-कर्णंगतचरत्सन्दंशेन अथवा अधरालुरेगतह्ाखेन + विषण्णया दषटटया च| |

मुहुः पूष

यह-अविष्ितोध्वगतपताकाभ्याम्‌

ताम्पति-~ गछानद््टयाङ्व रतेन

रचयति-खटकायुखाभ्पाम्‌ ॥०।

शै

१०१ सुष्ठु ;-- पूर्ववत्‌ राय्या-प्रपारितपताकाम्याप्‌ स्कन्धानतेन शिरसा कपोरगवार्षषन्दरेण अथवा सुप्रखानकेन | पयाङरं-हुदि उद्धेितपताकेन सह्धः-पूेवह्‌ ` वीक्षते-- विष्ुतया द्वा मदन-हुघपेष्टित चतुरेण | कदन-रेचितह त्तकेन अथवा पामकरयुटिदधिकणांहृषटखरकाद्खा- भ्याम्‌ छ्वान्तः-ग्रानद्छया . कान्त-अधस्तलसयंशीषं प्रतिदर्ितपतकेन | पियः-हृद्वपताकेन तव--परस्तकदर्रितपताकेन + वर्तते-ठरध्वतलमगक्षर्वेण सभयचकितं निन्यस्यन्तीं भृरंददरामन्तरं परतितरमुह्ःस्थित्वा मन्दं पदानि वितन्वतीम्‌ | कथमपिरहः प्रां अङ्धैरनङ्कतरङ्किभिः खुखुखि खु भगः पदयन्सत्वामुषैतु कतार्भताम्‌ भयचकितं -विधुतश्िरपा वरस्तयादृषटया विन्यस्यन्ती-परस्परपुरोगत चतुराम्याम्‌ श्ररा-आवतनेन | दशं-अपाङ्कवरत्रिपताक्ेन | न्तरे-परोदरितपताकेन * प्रतितरु--प्थक्‌ पथक्‌ दर्शितचलत्रिपताकराभ्याम्‌

१०९

सुद्दः--आषतेनेन स्थित्वा--अधस्तखीङतपताफरेन

न्दंपदानिवितन्वती-वि्म्परगलयाचायी परस्परपुरोगत चतुरा- `

भ्याम्‌ | कथमपि - रनेरावतितपताकेन रहः-सर््वयुखश्रबीधरषेन प्रा्ठा-अधस्तलीङतपताकेन अङ्धेः-अङ्कद दित हंसपन्षः अनङ्-हवाेष्टित चतुरेण तरङ्केभिः-परस्परनुगच्छचरदगुरिमिरूर्वाधस्त रखितपताकाभ्यां सुखुखि-लोरितसन्दशेन हनोरधोलपष्षेन खभगः-ऊ्नेगतालपष्ेन पट्‌यन्‌--अपङ्गविलोषलित चतुराभ्यगम्‌ | सः-पाश्व॑पतेष्टचीपुसेन त्वां-अधस्तरपष॑री्ष प्रतिद्ितपताकेन उपैतु-अवेष्टितोध्यगमतपताकेन क्रुतार्थतां- सर्ष॑तलो ध्वगतपताकाभ्याप्‌

1 1 मी

| इति रतिसुखसरे

अथ तांगन्तुमदाक्तां चिरमनुरक्तां ताहे द्रा | तचरितं गोविन्दे मनसिजमन्दे सी प्राद्‌

अथ--आवातितपताकेन तां-पा्चगतप्रचीष्ठखेन गन्तुमदाक्छा--चर्पुरःप्रसारितपतशेन सवलद्गल्याचार्या |

0

चिर नैरापरेषटितोध्व॑गतपताकरन

१०३ अनुरक्ता-दुद्रतचतुरेण | खतायदे-शनैरूष्वानी तर ताकरेणे ध्वमीलितमृगरीपभ्यां | दटरा-अपाङ्गविलुरित चतुराभ्याम्‌। | तत्‌-तियग्दधितघ्रचीभ्खेन चरितं-छरध्येतरविस्तारित पताकेन ¦ गाचिन्द्‌-त्रिमङ्गीखानकेन मनसिजमन्दे-हृववेष्टित चतुरेण भरान्तद्टया च। सवी-अधप्तरपर्पशीर्षेण हृद्तपताकेन प्राह-अधराप्पुरोगतहंसाखेन्‌

अङ्गेष्वाभरणं कराति बहुदा; प्ेपि संचारिभे प्राघ्रं त्वां परिदाङ्कते वितनुते राय्यां चिरं ध्यायति। हदयाकल्पं विकट्प तत्परचना सङ्कल्पटीटखाशत व्यासक्तापि विना त्वया वरतनुर्नैषा निरा नेष्यति अङ्गषु-अङ्गदित्हसपक्षेण मरणं -प्रकोषगताधचन्द्रेण प्र्ङ्कदधितामरणयुदरामिश | कराति-अधोघुखर्दसाखेन वटुाः--अविष्टितोध्रतरपताकाम्याप्‌ पञ्चे-ददितचतुरण अपि-आवतनेन सचारिणि-परःप्रस्ारित चरतपताकाभ्याम्‌ प्राक्ष- ति्यंगाक्षितमृगसीर्भेण | त्वां पुरः प्रसारितोध्वंतरूपताङेन | परिदाङ्ते-- शङ्कितया दृष्या वितनुते--विस्तारितोध्व॑तकपताफेन

१०४

चाय्या विस्तारितोष्वेतरुपताकाभ्याम्‌ सुप्तान्न

चिर- प्रनैरावेष्ितो्वगतपताकेन )

ध्यायति--हूदेतसन्दशेन निमीलित दृश्या

इति--अषिष्टितपताङेन

आकर्प--अङ्गद पिं तसन्दश्ाम्याम्‌ |

विकत्प-भवेषटितोद्ेषटित चतुरेण

तत्प पिस्तारसितोध्वतरुपताकाम्यां सुप्रयानफेन | ~ रचमा-मिखितष्खलोरितदसाखाभ्याम्‌ |

सकर्प-हृदेशास्पुरो गतोभ्व्ुखसन्दशेन

लीला गजगल्या लोलितचतुरेण

रातं--ऊर्व्ुखस्तन्धघ्र चीश्चुखेन

व्यासक्ता--हृदयासपुरोमीरित चतुराभ्याप्र |

अपि--आधतेनेन

विना-पियुक्तप्चीयुखाभ्याप्‌ | त्वया-पुरोदर्धितोष्व॑तरपतकिन |

वरतयुः-रटिताख्पष्वेनाङ्कद्ित हंसपक्षेन न-स्वांगुलिपुरस्तखकस्पितपतकिन एषा-अधांगुटिपुरस्तछख्दर्ितपतफिन निरा उरवुखविस्तारितपताकाभ्याम्‌ | नेष्यति-शनैरुष्यंगतारपष्मेन )

अष्टपदी १२ पश्यति दिद्िदिरचि रहसि भवन्तम्‌ त्वदधरमधुरमधूनि पिबन्तम्‌ १॥

पर्‌यति-अपाङ्गावर्तित तिपताकेन

14 | १०५ दिदिदिष्शि-प्रतिदिग्दद्रित ूचीयुषेन रहसि-पा्वगतोधवषुखघ्चीयुखेन भवन्तं--पुरप्रसारितोध्व॑तरपताकेन त्वत्‌--तियग्दधितष्ठचीष्चेन अधर--अघरोपरिचालितसन्दशेन मधुरमधूनि-मदिरया दृष्टया मत्तदयाचार्या पिबन्त-युखस्रिखरेण अथवा शुस्षमीपे सरध्वाधोमिरितयङ- साभ्पामू्‌ १॥ नाथद्रे) सीदति राधा वासगृहे नाध--आवतेनेन इृतयषटि्शिखरेण अथवा मूगीरपेण हरे- त्रिभङ्गी थानकेन सीदति-~-ग्लानद््टया म्लनद्ुलरागेणावधूतेन शिरसाङ्गवलितेन राधा-आकर्षितांचरुखटक्राषुसेन परष्ततेन श्चिरपा अथवा खस्तिकीकृतपशकोशाभ्याम्‌ यद्र अधस्तलीषृतसर्षशीरवेण | वास- शनेयवेष्टिताधस्तसीकृतपताकेन गरहे-मीरिताग्रषूगरीपाम्याम्‌

स्वदभिसरण रमसेनबलछन्ती पतति पदानि कियन्ति चलन्ती | २॥

त्वत्‌_ परप्रसारितोष्वंतरटपताङेन

अभिसरण-अवधुत्तरिरसा तिर्यगधोङ्कलि पुरःप्रसारितपताफेन अद्धुताचायां

रभसेन तवरया आवर्तितपतकेन

वलन्ती--अङ्गवरितिन

१०६ पतति- सवाङितगत्याङ्कर्बारतेन पदानि कियन्ति-समपादाचार्था चतुरस्पूरोगतचतुरेण चलन्ती. मत्तरयाचार्या | २॥

विदित विदाद बिखकिसरख्यवलखया जीवति परमिह तव रतिकलया ।॥ २॥

विहित-रनैरपिष्टिताधस्तरसीशतपताकेन विद्ाद--विस्तारितपताकाभ्यामू | | बिस--कमलवत॑नया शनेरुध्याधोगतसन्द्धेन किसरख्य-पहटवेन वरया प्रकोष्ठसिताधचन्दरेण जीवति- दूदतपताकेन शनेःधसितेन | परं-भवेषटित फिश्चिदृष्वेगतपतान हृद परस्तरदरितपताकेन तव~ पुरःप्रसारितोध्व॑तरपताङषेन रति-मिलितांगुरितरुभिपताकषाभ्यां अथवा उस्सङ्गेन कलटया-उरष्वुखकपिस्थेन

सहर टोकित मण्डनलीना

पि

मधुरिपुरहमिति भावनरीखा ४॥

सुवः वारं वारं अवेष्टितपताकेन |

अवलोकित अङ्ावलोकनेन मण्डन--अङ्गमूृपणानि दर्चितहंसाखा्धेचन्ाभ्यां रीखा-लोरितारुपषटयेने निदचितचिस्सा

| +.

मधुरिपुः त्रिभङ्गीख।नकेन

१०४७

अट -जन्रुदिंतारपह्छ्रैन इत्ति- आवर्तनेन भावनरीखा--हद्रतसन्दशेन अकृखया श्या त्वरितसुषौति कथमनिसारम्‌ हरिरिति वदति सखीमदुवारम्‌ ।॥ ५॥ त्वरितसुपेति-आकषितमृगशषर्पेण न-परस्तरुरोङितपतक्रन | कथ-ऊध्व॑तललोरितपताकेन जमिसारं पार्धगतसचीगुदेन मिरितभूमशीषौभ्यां च| हरिः तिमङ्गीस्थानफ़न इति--अप्रेष्टितिपताकेन वद ति--अधरस्पुरोगतहसास्थेन स्यी-अधस्तलीतसर्पशीर्षेण हृद्रतपताकेन अनुवार- वारं षारं आवर्वितपतकिन ५॥ श्टिष्याति चुम्बति जछ्धरकलस्पम्‌ हरिरुपगत इति तिभिरमनल्पम्‌ & श्छिष्यति--उत्सङ्गन चयुम्बति-अधरसमीपे यङलोपरिप्रुकुरेन जख्दर _तिथक्परपारित शनैरुूष्व॑समानीव विश्िष्टधोगुङिपताकाम्यां कल्पं प्रिलितदचीखाम्याम्‌ ) हरिः धिभङ्खीस्थानकेन उपगतः परोदेशादाकर्पिताधस्तरप्रग्ी्षेण हृष्टादशट्या इति -आबतंनेन

१०८

तिमिर अरध्वविस्तारितपताकाभ्यामू |

अनस्पं-अवेषटितर्किविदुष्येगतपताकाभ्याम्‌

अवति विलम्बिनि षिगलितरज्न विर्पलति रादिति बास्कसज्ा

भवति पूरः प्रषारितोष्व॑तरुपताकेन विरखुभ्विनि-अधस्तरपताकेन विरम्धरगल्या विगत परःशनरुढे्टित फतरीयुखेन छल्ला- रुजितथा दृष्टया पराघरत्तेन श्चिरसा विरुपति--अवधूतकिरसा विषण्णया दृष्टया अधरास्पुरोगतहास्येन रोदिति-नेत्रादधोगत चल्त्रिपतकेन वासकसलजा--हंसास्योध्व॑चन्द्राभ्याप्‌ आभरण दशधिताभ्यां खस्तिकी- -कृतपद्यकोराभ्याम्‌ ७॥ श्री जयदेवकवेरिदसदितम्‌ रसिकजनं तज्तामपि सखुदितम्‌ श्री-र्किचिदरध्वानीतालपह्वेनाबधूतधिरसा जयदेव-छराटखकपोतेन कयेः--अधरास्पुरोगतहंपाखेन इर्द-पुरस्काधांगुरिपताकेन उदित--अधरास्पुरोगतरहसायेन रसिकजनं- विक्तारितचतुराभ्याम्‌ तनतां--पुरःश्रसारित विस्तारितपताकरेन अति-अविष्टित िविदष्व॑गतपताकाभ्याम्‌ | खुदित--हदिखविकसितयहरेन

१०९

विपुलपुलकपाली स्फीतसीत्कारन्त- जनितजडिमकाकु वयाङ्कलंब्याहरन्ती

तव कितव विधाथामन्दकन्तपंचिन्ता स्मरजलधिनिमभ्रा ध्यानटभ्रा स्रगाक्षी

विपुल -अधस्तलपुरोमिङिवपताकाभ्याम्‌ पुखकपाी अङ्गे चरदृष्वंगतदहंसपक्षेण स्फीत-विक्तारितपताकाम्याम्‌ |

सीत्कारं -अङ्गशङ्कितेन अन्तजनित-हद्वतसन्द॑ेनो्वगतारपद्येन जडिम-हृदतय्टिना काङु-कर्णगततिपताकाभ्याम्‌ |

, ठयाकुरं-हुदुदरे ितचतुरेण | व्यादह्रन्ती-अधरास्पुरोगतदहसाखेन तव-पुरः प्रसारितोध्व॑तरुपताक्ेन कितव--दितताम्रचूडहृ्रतसन्दशेन | विधाय--अधस्तरीकृतपताकेन स्मर-हृद्ापेषएतचतुरेण

जलधि -विस्तारितोध्व॑तरुपताकाम्याम्‌ | निमभ्रा-अधोगतघरिना। ध्याच्र-हद्ररसन्दगेनमीङितदृश्वा लभ्रा-निमीरिताग्रतल घचीष्खाम्याम्‌ | स्गाक्ी-दशचित मूगश्चर्पेणपाङ्कवरङित नरिपताकरेन

अच्रान्तरे कुलटाङ्कलवत्मघात संजातपातक इव स्फुटलाछनश्रीः |

११० 1

%

बृन्दाचनान्लरमदीपयदहुजाखे; दिकशन्दरीवदनचन्दनचिन्दुरिन्दुः

1

अच्रान्तरे-अवेष्टितोध्ववलपताकेन

च-आवत॑नेन |

कुरुटा-ङःध्वविस्तारितपताक्राभ्या्‌ अधोगुिपूरःप्रसाशितिपताङेन

कुटवरंमे - आवतंनेन कृतयरष्टिना विस्तास्तिपतकेन

धात-- स्कन्धदेशात्तिथग्गताधस्तलपताकेन

सजातपातकः-पिधुतशिरया

इव-आवतंनेन

सफुट-विकसितयुङुलेन विस्तारितोध्वंतरुपताकेन

लांछनश्राः--अर्थचन्द्रादधोदक्चित मृगक्षीर्पेण

बृन्दावनान्तर--चरुदृष्वंगतत्रिपताकाभ्यां विस्तारितो््वतरुपता- फाभ्यां अथवा अन्तरं--अ्धोँुटिपुरस्तकपताकेन

अदीपयद॑द्युजारैः-ति्यैगधोमागे दतितफिविदुष्वानीतार्भवन्द्रा -* दधःसमानीत चरत्रिपताफेन

दिकश्ुन्दरी-दिण्दरितष्चीष्खेन खस्तिशीहतपडकोश्षाभ्यां च।

चदन-हनोरधाघ्रतितारपहटुवेन °

न्दन-परावतितषुष्टिभ्याम्‌ | धिन्दुः-ललाटगतघ्रचीष्रखेन

इन्दुः-तिर्थग्दवितार्धचन्द्रेण ` ,

धरसरति राराधरषिम्े विदितविलस्ये माधवे विधुरा चिरचितविविधविरापं सा परितापं चकारोच्चैः

प्रसराति--विस्तारितोध्॑तरपताकाम्याम्‌ |

दादधरबिम्बे-तिर्यगृर््वदर्धितार्धचन्द्रेण

(|

१११ विहित शनेरधस्तरीदरृतपतकेन विलम्बे-विरम्बगलयाचा्थां च-आवत॑नेन माधवे -- त्रिभङ्गी खानकेन | विधुरा-अधोुखेन चिरसाङ्गबारितेन विरचित-अधोयुखहसासेन विचविध-अपिष्टितपताक्षन विापं--अपोवदनरिरसा प्िषण्णया इया नेत्रादधोगतर चलत्रि पताकेन सा--पाश्च॑गतशचीयुखेन परितापं-विधुतक्निरसाभितप्या दृश्या चरुूर्दगुिपताकाभ्यां च। चकार-अधोप्रुखह॑सासखेन उचचैः-अविष्टितो््वगतपताकेन अष्टपदी ३३ कथितसमयेऽपि हरिरहह ययो वनम्‌ | मम विफलमिदममलरूपमपि यौवनम्‌ १॥

कथित-अधरासपुरोगतर्दसशचेन समये-किचिदधःसमानीतोध्वैतलमृगशीर्ेण

` अपि-आवतेनेन्‌

हरिः-त्रिमङ्गीखानकेन अहह-पिषण्णया दृष्टया स्फधानतेन शिरसा न--परस्तरफम्पितपतफेन

| ११२ ययौ -रनैस्तिथंगाकपिताधस्तरमरगशर्पेन वनं--उरध्वगतपताकाभ्यम्‌ | पलेवन-विस्तारितपताकाभ्याम्‌ मम-जव्रुदशिंतारपहमेन विटं _ विच्युतकपिस्थेन हर्द-,अधांगुरिपुरस्तरपताकरेन अभरु-रोकितसन्दशेन रूपं एनेरङ्गद धि तसन्द॑शाम्यां रोङितालपष्वेन अपि--आवतंनेन यौवमन--खस्तिकीकृतपञमकोशाभ्याम्‌

यामि दे कभिददारणम्‌ | सखलीजन वचन विता

याभि--अधोंगुहिपुरःप्रसारितपताकेन हे-अधस्तकरीषृतसर्षशीपप्रतिदर्ितपताकेन क-पार्धगतुचीधरुसेन इह--अधोगुलिपुरस्तलपताकेन हारण--अवधूतरिरसा हृ्ांजरिना सण्ी-अधस्तरसपरीर्ेण जन--विस्तारितपताकाम्याम्‌ | घचन--अधरात्पुरोगतदंसाखेन वशिता-उदेटितपताकेन

यदनुगमनाय निरि गहनमपि रील्ितिम्‌। तेन मम हृद यभिदं असमरार कीलितम्‌ ।॥ २॥

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यत्‌--तियग्दशितष्रची खेन

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15 १११

अनुगमनाय- ति्र्गतोष्व॑तरुमूगश्ीरपेण निदि-उ्वैशुखविष्तारितपताफन गहन -- परेन विस्तारितपताकाम्याप्‌ अपि--आवतेमेन रीलित-अपाङ्गावतितत्रिपताकेनाध्य्धिकाचारय | तेन -पाश्वगतद्रचीघुखेन मम-जव्ुद्रितारुपह्छभेन

हृद यं-हृदतसन्दंयेन हद--त्रधोगुलिपुरस्तङपताकेन

असम- हृदतवेष्ितचतुरेण रार--वामप्रपारितयुटया कणाट्ृष्टखट काष्ुखाभ्यापर्‌ कीलित--हृ्धप्रां गुष्पिखरेण ।¦ २॥

मम मरणमेव वरभिति वितथकेतना किमिह विषहामि विरहानरख्मचेतना २॥

मम जव्रुदरितारपह्टमेन मरणं--अश्वीरलाद्यक्तष्‌ |

एव--आयतेनेन।

वरं रनैरुष्वगतारूपष्टेन

इति--आवतंनेन वितथ--विच्युतकिञ्चिरक्षिप्रकपिस्थेन

केतना उर्वमिरितसरप॑रयीपम्यामू

कि प्रिच्युतकपिस्थेन

इद--अर्धोगुटिपुरस्तरे एेम्पितपताकेन विषहाभि--अङ्गप्तमीपे शनैरधस्तली छतपतकेन

६.

११४ विरह--तियुक्तपूचीयुखाभ्याम्‌ अनलं विष्िशंयुटिचलदृष्वेगतपताकाम्बाम्‌ | अचेतना- भ्रञ्चितधिरसा ग्सानद्श्या ३॥

मामदह बिधुरयति मधुरमधुयामिनी कापि हरिमनुयवति कृतसुक्रतकाभिनी॥ ४॥

मां- जत्रदतारपष्मेन

अहह--विषण्णया दृष्टया सकंधानतेन तिरसरा विधुरयथति-अधायरुखेन चिरसाङ्गवाकितेन मघुर-रलितालपहछयैन मधु-कगृटपहवाभ्याम्‌ | | यामिनी-सर्व॑युखविस्तारितपताकेन परस्तरिरलां गुकिनिङकिन =, ¦ कापि--पा्वगत्र्चादखेन भ, हरि-तिभङ्गास्थानकेन। | अनु भवति-- उत्सङ्गेन मुङूढया दृष्टया | | क्रत अधोुखहंसाखेन | सुक्रत--अधोगखभिकसितय्ुरेन ्‌ कामिनी-िरखादाकर्षितांचरुखटशरघुखेन परावृत्तेन शिरसा |

= ^ नक २.9

~ ८५ जष्धेऽ- रक

क.

अहह कलयामि वलादि मणिरूबणम्‌ हरिविरहदहनवहनेन बहुदूषणम्‌ ५॥

अर्हह--विषण्णया दृष्टया स्कन्धानतेन शिरसा कलटयाभि-दृदतसन्दशेन वरख्यादि--प्रकोष्रगताधेचन्द्रेण मणि--चटत्कांगङेन

भूषण-प्रलङ्गद ्ितहसाखाभ्याम्‌

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1 - "छ क, - 5-८4-0 = =+ = = =

[मि वि ति `

११५

हरि त्रिभङ्गीस्थानकेन | विरह--विषुक्तष्चीयुखाभ्याम्‌ दहन--विश्िशं एुटिचरुद्ध्वैपताकषेन वदनेन -अङ्गसमीपे शनेरधस्वकीकरषीषताकाभ्याम्‌ वेहु-अवेष्टित किचिदृ्व॑गतपताकाम्याम्‌। दूषर्ण-विषण्णया दृष्टया विच्युतकपित्थेन ५॥

कुसुमसुक्कमारतनुमतयचुदारराखया।

सखगपि हदि ददति मामतिविषमदीखया कुसुम--कांगृरेन सुकुमार चलितांगुष्ठहसास्येन तन-- अङ्गद धिंतहंसास्येन अतनु-हूदतविषशितचतुरेण रार-वापप्रसारिषुिदक्षिणकर्णाद्रषटखटकधुखाभ्यां शचचनया इष्टवा टीलखया-समपादाचार्या दोरहस्तकेन निहश्चितेन शिरसा

. अगपि-स्कन्धदशाचर्दधःपमानीत खटक्रायुखाभ्याम्‌ |

हृदि--दृद्रतसन्दं शेन |

दहति--विश्िशंगुलि चलदुध्वगतपताकेन मां--ज्दरितारपटवेन अति--अविष्टितकिविदूध्वगतपताकाभ्माम्‌ चिषमरीखया-अधोुखेन दिरसा धिषण्णया इष्टयां गवलितेन

अह मिहदहि निवसामि गणितवनवेतसा स्मरति मधुसुदन मामपि चेतसा ७॥

अहं-जतरुददितारुप्छेन

११६

इह दि-अधांगुरिपरस्तरपताकेन निवसामि- शमेरधस्तसीकृतपताकेन गणित--अंगुषठगणितांगु्यूध्वे्तरपताकेन वन पहबहस्तकेन षिस्तारितपक्षाकाभ्याम्‌ वेतसा-चरदु्यगततरिपताकाभ्याम्‌ स्मरति-हद्रतविफसितृलेन मधुसुदनः-त्रिमङ्गीखानकेन मां-जत्रुद्धितारपह्येन अपि-आवर्तनेन न-पूरसर कम्पितपताकेन चेतसा- हद्रतसन्दशेन हरिचिरण रारण जयदेवकवि भारती | वसतु हृदि युवत्तीव कोमरुकलावती हरि--वेष्णवुद्यानकेन चरण चरणदर्दितपतकेन रारण--हृव्यांजलिनाऽवधूतिरता करुणया दथवा च। जयदेवकाबि--रुखाटयांजलिना भारती--अधरत्पुरोगतदहसाखेन यसतु-शमेरधस्तसीकृतपतताकाभ्याम्‌ ) हदि--दृदतसन्दशेन। ` युवति-खस्िकीकृतपदको शाम्याम्‌ | हव --आवतनेन कोभर--चरितांगुष्ठहसाखेन कलावती -रुरितया दघ्या चतुरेण

११७

तत्कि कामपि काभिनीमभिखतः किंवा कल केलिभिः बद्धो बन्धुभिरन्धकारिणि वनोपान्ते किस्द्रास्यति। कान्तः ह्ान्तमना मनागपि पथि प्रस्थातुभमेवाक्षमः सङ्तीकरतमञ्ज्ुवञ्जटलताङ्कञ्जेऽपि यन्नागतः तत्‌- अविष्टित तिर्थमूष्वेदरधितद्चीगुखेन कि विच्युतसन्दंशेन कां-पारश्वगतष्चीुशचेन अपि-आवतमेन कामिनीं आकरवितांचललटकाष्देन पराष्त्तेन शिरसा अथवा खस्िकीदरतपञ्चकोश्षास्याम्‌ अभिखतः--पामपाश्वासतियंगतोध्वंतलमृगश्चीपण किंवा--विच्युतसन्देन अथवा आपतेनेन करकेलिनमिः-सर्प्वगतघ्रचीयुखेन मिरितांहितरत्रिपताकाभ्याम्‌। बद्ः--आवतनेन छृतयुषिना वन्धुभिः-हृद्तपताकेन अन्धकारिगि--ऊ्यतलोध्व॑विश्तारितियताकेन वनोपान्ते--चलदृध्यगतत्रिपताकाग्यां विस्तारितोध्व॑तपरता काभ्यां पाश्वदेकादधोदश्चितपताकेन कि- उर््वतललोटितपताकेन उद्धाम्यति-सरवघुाद्धामित घचीभुखेन अथवा भ्रम्थाचाया। कान्तः-- हृदतचतुरेण छान्तमनाः-हदवसन्दशेन ग्ानद्ण्या मनागपि---ऊर््वघुखकपिस्थेनावतंनेन पथि--पा्वगतोध्यतलसगशीरपेण प्रखातु--अधोयुरिचरसपुरःप्रपतारितपताकेन |

११८

एव -रा्प्वतलमृगक्षीेण अक्षमः--रस्खलद्वत्याचार्याङ्गवलितेन सङ्कतीक्ुत--तिर्यग्दर्वितद्चीयुदधेनाधोषुखदंसाखेन मल्ु-रोरितारुपह्येन

„, चख -- कभ्पितोध्वयुलघचीषसेन रताङञ्च-ठताकयेष्व॑पमानीतमिलितप्खमूगश्चीषीभ्यां | अपि-आवत॑नेन | यत्‌- उर्व चीधसेन न---पुरस्तलकम्पितपताक्षेन अगगतः--आकषितमगशीर्षेणाकस्पितेन हरिरसा |

अथागतां माधवमन्तरेण सखीभियं वीक्ष्य विषादभूकाम्‌। विदाङ्कमान। रमितं कयापि जनाईनं द्टवदेतदाह्‌

अथ-अधांगुटिपताकेन | अगगतां - तिथेगाकपितमृगरीपेणाकम्पितेन स्षिरसा माधवं-तिभङ्गीथानकेन अन्तरेण - वियुक्तर्थायुखाभ्याम्‌ स्वी - अधस्ललसपंशीर्ेण हृद्तपताकेन इय--अधाोंगुिपुरस्रुपताकेन वीक्ष्य--अव्ररोफितदरश्चा | विषादमूकां-- विषृण्णयादृश्टया विराङ्माना-वितरजितद्टया + रभितं-मिखितांगुलिवरतिपताक्राभ्याप्‌ कयापि-पाश्वगतद्चीषुखेन ` जनार्दनं--परिभङ्गीखानकेन

6 = = < ठह - =

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लषः ५१९

अक ~ ५१ + कै भः ^

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११९ हृटवत्‌--अवराकितदृ्टया पुरोदर्ितपताकेन एतत्‌--उध्वतरमृगरर्मेण | आह-अधराप्पुरोगतहंसाखेन

101

अष्रपदी १४

स्मर समरोचित विरचितवेषा गित कुषुमदल विद्टुटितकदरा

स्मर-हृदताविष्टित्चतुरेण

समर तिथक्प्रसारितवामयुषटिदकिणकणीक्रष्टवटकायुखाम्यामारीह- सानकेन घचनया दष्टया अधोप्रुखी इृतहसायेन

विरचितवेषा-स्कन्धदेशच्चरुदधस्पमानीत खटकाधुखाभ्यां प्रल्ङ्क- भूषणद्शरितदहसाखाधचन्द्राभ्यासङ्गदगरितसन्दंश्ाम्यां

गलिति-- परावतिंताधोषखकतंरीएखेन

कुसुम-कांगूरेन

दट-- चतुरेण

वि्टलितकेदा-शिरखाववितपरावरतितचरुद धस्समानीताराठेन कापिचपला मधुरिपुणा | विलसति युवति रधिकय॒णा

कापि--पाश्वगतघ्चीमुखेन चपरा-किरखाकषितां चरखटकायुखेन विश्िष्टयाचार्या कटाक्षेण च। सधुरिपुणा-- त्रिभङ्ीस्थानकेन

. विलसति--दंसगसया निदहंचितरिरसा + युवतिः--खक्तिकौडृतपग्न कोशाम्याम्‌

१२० अधिक-अवेष्टितकिंचिदृष्येगतपताकेन्‌ अधिकयगा-हृयपिषटितचतुरेण अथवा मिकतितां गु्ितर तिपता-

काभ्याम्‌ रोरितारप्येन अथवा अधरात्युरोगतहसाखेन रोितसन्दंशेन

द्रिपरिरस्भण वङितिविकाश ऊुचकखशोपरि तरलितदारा २॥ +

हरि त्रिभङ्गीस्थानकेन |

परिरम्मण-उत्सङ्कन

वित --अविषितपरिविदृथ्गतचरुताकाभ्यां रुकितिया दृश्या च॑ विकारा--अङ्गदितचरद्धसपक्ण | अथवा धिधुत्निरसा विरलां

गुलिचलस्पताकेन्‌ |

कुचछलदा-ख्तिकीड प्कश भ्याम्‌ उपरि-षक्षस्थरोपरिथधस्तकीकृतपताभेन तरटितिहारा-स्कन्धदेशाचरुन्नामिपयन्तानाति खटकराषखाभ्याम्‌

विचरुदषकरूलितान नचन्द्र | तदधरपानरभखक्ुनतन्द्रा २॥

विचटदरक--िरस्थारोलित चरत्तयेक्प्रसारिताराचेन

ललित--रोकितारपष्टषेन

आनन - हनोरधाचतिंतारुपषवेन

न्द्रा-तियंगृष्वेप्रसारिताधचन्द्रेणोस्तिप्न शिरसा च।

तत्‌- पार्धगतसूचीदुखेन

अधरपान--अधरपरस्वारितसन्दशेनएखसमीपे उष्वोधोधुखष्ु्- भ्याम्‌

रभस-हूदतविफसितथरुकैकेन

9

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६)

16 १२१ क्रूत-अधोयुखहप्राखेन तन्द्रा- मदिरया दृष्टया ।॥ २३॥

चचलङ्कण्डलखरूलित कपास सृखरितरदानजधन गतिला

चचलङुण्डल-कणगतचरद्धसाश्चेन रुजित-रोहितारपष्येन उत्तानर्वचितेन कपोर-उन्तानर्घचितेन सुखरित-कर्णंगतप्रचीमुखेनाधराप्पुरोगतदसाखेन | रदान--कटिगताधचन्द्रास्याम्‌ अथवा कटिदेशचाचरत्पुरः समानीतं खटकायुखाभ्याम्‌ जघन -नितम्बहस्तेन गतिलोरखा-समोसरितमत्तस्याचया # दयितविरखोककित टलज्ितदसिता बहु विधक्रूजित रतिरसरसिता ५॥ दयपित-हृद्रतपताकेन खिग्धया दृष्या अथवा आवर्तनेन कत- युष्टिक्षिखरेण स्िग्धच््टया विलोकित--अपाङ्भाववितचरुतिपताकिन विरोकितेन ठजित-रुज्ञितया दृष्टया पराषृत्तन्िरषा हसिता-प्रसन्नयुखरागेण हाखद््टया बहुविध-अआगिपतिरिवेदूष्+मतपताक्राभ्याम्‌ | कूजित-कण्टदे शाचलद धरपरस्तमान। तहसाख्चन | रतिरस-मिरितांयुलितरुभ्निपताकाम्यां उष्वेतलचतुरेण अथवा युखसमीपे उध्वाधोयुलपुहृकाभ्याम्‌। उत्सङ्गेन कान्तद्एटथा रसिता-अधरात्पुरोगतहंह्ास्येन ५॥

* 'स॒मोसरिध इति समं समग्रय्तः इति पद्य ब्रदतभ्रू- कटिनाथः]

(पिरि

१२९

विपुलपुरुक पृरथुयेपशथुभङ्का ग्वसितनि मीलित बविकसदनङ्ा |

(क (न

विपुल--विस्तारितोभध्व॑तरुपताकाभ्याम्‌

पुख्क- अङ्कदश्चितचरद्धक्षपक्षेण

पथु-उरध्वंगतोष्व॑तलपताकाम्याम्‌ |

वेपथु-विधुतेन शिरसा पिरलांगुलिचलत्पताकेन

भङ्गा -- षिनिमयेनोभ्मधस्तरीकृताव्ति तपरावर्विततियंक्चालितपता- काभ्याम्‌ | |

श्वसित-- मन्द श्वासोच्छरासेनोदाहितोरसा

निमीलित-शनेरधस्तरी कतपतकेन निमीरितद्ष्टया

विकसत्‌-ऊध्वेुखविकपितथुुरेन कान्त दृष्टया

अनङ्गा-दृद्तावेष्टितचतुरेण &

अ्रमजरख्कणभरसुमगरारीरा | परिपतितोारसि रतिरणधीरा ७॥

श्रम-श्रास्तया दषया

जलख-अङ्कसमीपे चरूदधस्समानीत त्रिपताकेन कण-अधोग्चुख विशि युिषुहूरेन ।' | भर-अधल्तरगप्ररः संलोलितपताकाभ्याम्‌ | सुभग--लोरितारपद्छवेन हारीरा-शरीरद ितर्दसपक्षेण परिपतित-व्यावरविताघोश्चुखकतरीघुखेन उरसि-हद्रतपताक्रेन रतिरण-मिरितांगुलितर्तरिपताकास्याम्‌ धीरा-गजद्न्तेन ७॥

| |

|

4 + 4 1

१२३ श्री जयदेव भणित हरिरभितम्‌ कटि कलुषं जनयतु परिमितम्‌ < श्री-ऊर्ध्वगतारप्ट्येन जयदेव-रुलाटखांजकलिना

मणित-अधरात्पुरोगतदसास्येन

हरि-तरिभङ्कीख्ानकेन रमितं-मिरितांगुरितरत्रिपताकाम्याम्‌ ) कलि--रध्वुखभ्रगरशीर्षेण

कल्टरषं -- विधुतेनशिरसा

जनयतु- अविषटित किचिदृश्वेगतपतकेन परिदामितं--शनैरधस्तरी हृतपताफेन <

विरदपाण्डु सुरारि सुखाम्बुज इुतिरयं तिरयन्नपि वेदनाम्‌ विधुरतीव तनोति मनोखुवः ह्वये हृदये मदनव्यथाम्‌

विरह-विुक्तघचीपुखाम्याय्‌ पाण्डु-विस्तारितचतुरेण मुरारि-तिभङ्गीस्ानकेन सुख--हनोरधावर्तितालपष्टमेन अभ्बुज-कमरवतेनया द्तिः-विस्तारितारपटवाभ्याम्‌ अय॑-अधोंयुरिगुरस्तलपताकेन तिरयन्‌--वदिःकिक्षपताकेन अपि--आवर्तनेन वेदना-अंचितेन शिरसा विषण्णया दश्वा विधुः--डर््वदितार्थचनद्ेण

१२४

अतीव-अविष्टितिपताकेन तनेति-ऊध्व॑तरुविस्तारितपतेन मनोसुवः-हूद्वतावेष्टित चहुरेण सुद्टव-लोरितसन्दधेन हदरतपताकेन | अथे-अधस्तरीकृतसर्षशौीषं प्रतिदशितपतकिन हृदये -हृदरतसन्दशेन `

मदन-हुद्तषेष्ितचतुरण

च्थथां-अङ्कवरितिन रोलितरिरसा ग्छानद्श्या

अपदा १८५ समुदित मदने रमणीवदने चुम्बनवलिताधरे मुगमदतिलकं लिति सपुरुकं शगमिव रजनीकरे ॥१॥

ससुदित-उर््वयुखपिकसित्ङृरेन मदने-हूदतापरेष्ित चतुरेण

रमणी-हत्समीपे खस्तिकीडतपञफोशाभ्याम्‌ वदने ~ हनोरधाधरतिताटपष्मेन

चुम्बनं वित-अधरसपीपे शनेरधोयुखमुङ्खरास्याम्‌ अधरे- अधरोपरि चाखितसन्दशेन म॒गसमद-दितमृगश्ीर्षेण नासागतदहंसास्पेन तिटक-रलाटखत्रिपताकेन | लिखति-सम्धुखपताकोपरिचलत्तियेगगतखटकाशुखेन सपुरु्क-अङ्गद धितचलद्धंसपक्षेण

सरग मृगशीर्षेण

इव-आवतनेन

रजनीकरे-अधचन्द्रेण १॥

१२५ रमते यश्षुना पटिनवने विजयी सुरारिरधुना

रमते--मिरितांगुि तर्वरपताकाभ्याम्‌ | यसुना--ति्गुभ्यैमुखातितप्चीश्चखाचरुदधस्समानीततिपताकेन

अथवा मकरहस्तकेन | पुलिन-अधोुलनिष्पेषितसन्दं शो विस्तारितोध्वैतलपताकाभ्यम्‌ वने-प्टवहस्तकेन विस्तारितपताकाम्याम्‌ | विजयी-अविष्टितोष्मतरुपताकाभ्याम्‌ , परारिः*-प्रिभङ्खीस्थानकेन अधुना-उर्ध्वतलदधितगगशीषेण

घनचयरचिरे रचयाति चिङ्कुरे तरलित तरुणानने क्ुःरयकङ्रसुमं चपलासुषमं रतिपाति सखगकानने २॥

चन-उर्भ्वमुखविस्तारितपताकाभ्याम्‌ चय-ऊर्ध्वाधस्तकमिरलितपताकाम्याम्‌ रुचिरे-रोरितसम्दशेन | रचयति-रिरोदितहंसास्येन चिङ्करे-शिरोभागाच्लदधस्समानीताराठेन तरलित--चरत्रिपताकेनं तरुणानने-हनोरधावपितालप्ह्येन कुरवक-अधोर््वदधिताधेचन्द्राम्याम्‌ कुसखुम-कांगुठेन

चपला- उध्वुखचरभिपताकेन सुषमं-रोरितारपह्टवेन

रतिपति - हृद्ूतापरष्टितचतुरेण

१२६

सग-मृगश्ीरषेण |

कानने--चरुदु्वगत भिपताकाभ्यां विस्तारििपताकाभ्यां ॥२॥ घटयति खुघने ङचयुगगगने सगमदर्चिरूषिते। मणिगणममलं तारकपटलं नखपदरादि भषित ३॥

घटथति-मिलितचीगुखाभ्याम्‌ सुघने-स्तनादधःप्रथुद्वितारपह्षाभ्याम्‌ ुचथुग--खस्तिकीकृतपञ्मकोशाभ्पाम्‌ गगने-छष्वंविस्तास्तिपताकेन मृगमद-दरितमृगशीषास्येननासापुयेगतदहसास्येन रुचि-रोरितसन्दंशेन रूषित-अङ्करेपितदहसपक्षेण तारकपटलं ऊ्व॑द्ितखटकाषुखेन नखपद--उरसि दशितोणनाभेन दारि-तियगू्वगतार्धचन्द्रेण भूषित--रोहितारुपष्षेन

जित बिसराकले सृढुसजयुगरे करतलनलिनीदले

मरकतवलयं मधुकरनिचयं वितस्ति दिमरीतले ४॥

जित-पहिः क्षिप्तत्रिपताकेन बिस--कमलवतेनया चरुदधर्प्मानीतसन्द॑रोन दाकले-चटिति विश्लेषितखचीश्चखाभ्याम्‌ खदु-चरदगुष्दंसास्याभ्याम्‌

सुज--शुजद शितपत्ताकेन

युगरू-परस्तरद शिततिपताकेन

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१९७

करतल परस्परादश्चिततरिपताकेन

नलिनीदले- कमलवतेनया चतुरेण

मरकत ऊरध्वंदरितचरत्कां गुलेन

वल्य _ प्रफोषएगताधंचन्द्रेण

मधुकर भ्रमद्धमरेण

निचयं आवतंनेन इतदुष्टिना

वितरति--अधोथुख विकसितय्रुङलेन

दिमरीतरे-विधुतशिरसा चलद्ृध्वंगतपताकाम्याभ्‌ रतिगरहजघने विपुलापघने मनसिजकनकासने मणिमयरसनं तोरणहसनं विक्षिरति करतवासने ॥५॥

रति- मिकितांयुरितिलत्रिपताकाभ्याम्‌

गृह--ऊभ्वमीलितद्वम्रगक्लीषाम्याम्‌

जघने- नितम्बहस्तकेन

विपुकापधने-उर्वतरविस्तारितपताकाभ्याम्‌

मनसिज हृधाबेष्टित चतुरेण

कनकासने- प्रको्ैवालिवसन्द॑शेन

मणिमय चलत्कांगुकेन

रसनं--कटिस्थितार्धचन्दरेण अथवा पाच मागच्रुत्पुरस्समानीत खटकष्चुखाम्याम्‌ -

तोरण बामदेशोध्वंगतचरदिस्तारितचतुरेण

हसनं -प्रसन्एखरामेण

विकिरति परस्परसम्पुखा ततियेख्िङितदंसास्याभ्यां करटिसपरीपे।

{: + करूतवासने-नासागतदंसास्येन

१२८ चरण किसख्ये कमलानिलये नखमणिगण प्रूजितें

बदिरपवरणं यावकभरणं जनयति हदि योजिते ॥६॥

चरण-चरणद्ितपताकरेन किसलये प्यवहस्तकेन कमला-लोरितारपष्छवेन अथवा आयतस्थानकेन निल्ये-ऊभ्यमीरितस्गकीषाम्याम्‌ नख-ताग्रचूडेन मणि-चरत्कांगूठेन गण--आवतेनेन ृतयुषटिना पूजिते-अधोयुखष्ुङलाभ्याप्‌ वहिः विस्तारितपतकेन अपवरणं--शनैरधस्तरखीदतपताकभ्याम्‌ | यावकभरणं चरणदितकर्वरीशुखेन जनयति--अवेशितोष्वंगतपताकाभ्याम्‌ हृदि-हर्स्थितसन्दरेन योजिते-मीरितस्वीपुखाभ्याम्‌ ।॥ & रमथति सुश्ररं कामपि खददां खं हलधरसोदरे। ` किमफलमवसं चिर मिहविलसन्वदससखि विटपोदरे

रमयति -उध्वैतरमीलितलिषताकाम्याप्र्‌ सुभरां पिरितघचीशखभ्याम्‌ कामपि--पाश्वगतप्रवीयुखेन

सुरर्दा- नेत्रान्ते रोलितचतुरेम खद्टु--अधस्तली कृतपताफेन

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117 १२९

दरखुधर-स्कन्धास्थताराठेन सोदर-मिलितषवीयुखाभ्यापू फि--विस्युनकपित्थेन

अफलं --उदेटितपताक्षेन अवसं--एनेरधस्तसीदृतपताकेन चिरर--अविषटितोष्य॑तलपताकरेन। इद--अ्धोगुलिपुरस्तरुर्‌ तपता ङेन विरसं-उदेष्िवाङ्गवाङतेन पिषण्णया च्छया च। वद--अधरादुरोगतहपास्येन सखि--अधस्तलीछृतसपश्चर्पेण हृद्धतपताकरेन

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विरप।दर- रताकरवालितोष्याग्रमिङितेन ७॥

हृद्र्स भणनं क्रतद रिशणणने सधुरपुपदसेवके कलियुगचरितं निरसतु दुरितं कञजिद्धपजयदेवरे ॥८॥

इह-परस्तठदधितपताकेन रस-रोकितचतुरेण भणने--अधणष्पुरोगदष्दपास्येन

कुत --अधोयुखदहस।स्येन ्रि--त्रिमङ्खीस्थानकेन। गुणने--पिस्तारितपताकाभ्याम्‌ मधुरिपु-दिरस्थांजटिना। पद-चरणद््षितपताकेन

सेबक--हरस्थां जिना कलियुगचारेतं - विस्ताप्तपता काम्या

१२० निरसतु--उद्शितिपताकेन दुरित--चरत्पताकेन बिधुतेन शिरसा वि--अ्रधराप्पुरोगतदहसास्पेन। चप--प्रविष्टितघ्रुष्टयोपरिशिखरेण जयदेव े-उलाटस्थक्पोतेनावधूनेन शिरसा

नायातः सखि निव्यो यदि दारस्त्वं दूति किं दूयसे स्वच्छन्दं बहुवह्ुभः रमते कि तत्र ते दूषणम्‌ परया प्रिपषङ्कमाय दयितस्याकृष्यमाणं गुणः उत्कण्टातिंभरादिव स्फुटदिदं चेतः खथं यास्यति॥

न~-पुरस्तरकम्थितपताकेन आथातः- तियंगाक्ितमृगज्ञी्षणाकम्पितिनशिरसा सखि--अधस्तरद धि तसप॑शंपण हद्धतपताकेन नि$यः- युद्ेष्टितपताकेन यदि-रष्वेतरुमरगशर्ेण राठः--्रावतेनेन कृत्लिखरेणोद्धिष्टितपताकेन त्वं दूति-अधस्तरसपशीषप्रतिदशितपताकेन किं--विच्युतकपित्थेन दूयक्षे-्रधोषुखेन शिरसा

खच्छन्द्‌ हू्तपतङेन अपिष्टितोध्गतपताकेन बहु-अविष्टितोध्वंगतपताकेन वष्टुभः -दृद्तपताकेन सः-पाश्वगतष्रचीयुषेन रमते-मिरितांगुलितलनरेपताकाभ्याम्‌ कि-रोरलितोध्व॑तरपताकेन

१६१

तत्र-तिर्यग्दधितष्वी खेन ते-अधस्तरीकृतसपरीर्षग्रतिद शितपत केन दूषणं- विच्युतफपिस्थेन पटय- अपाङ्गे रोरितचतुरेण अध्य-ऊःभतलपरगश्र्षेण परिय--हुद्रतपताकन ` सङ्गमाय-मिलितप्कीष्खाम्याम्‌ दयितस्य-हूद्रतपताकेन आक्रष्यमाणं गुणैः-तियकपप्ारिताकर्षितखरफामु वेन उत्कण्ठा--कण्टदितसन्दशेन आर्ति-कातरया दया भरत्‌ - पुरोधस्तरमिकितपताकामभ्याम्‌ : इव-आवतंमेन स्फुटत्‌- विकपितथरुुरन हृदं--परोदशितपताकेन प्वेतः-ृद्रतसन्दंेन स्वय--वक्षोगतपताङन यास्यति--अधोङ्खलि पुरःप्रषारिविपताकेन रिपुरिव सली संवासोऽय शिखीव दिमानिखो विषमिव खुधारदिपयस्मिन्दुनोति मनोगते हृदयमदये तरिमधेवं पुनवेलते बरात्‌ कुवख्यदशां वामः कामो निकामनिरङकखः

रिपुः-स्छन्धदश्रात्तियगधर्षमानीवाधल्तरपताकेन इव-आवंत॑नेन

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१३२९

सखलीसंवासः-अधस्तरप्ष॑शौपेण हृदतपतताकेन मण्डर्छा्तो््व॑तर पताकाभ्यामू्‌। |

अयं-अधोरिपुरस्तरद भितपत्ताकेन

रिखी--चिरसांगुलिचरदुर्वगतपताकाभ्याम्‌

इव-आवतंनेन।

दिमानिलः-िथैक्प्रसारित चरुत्पुरःसमानीतत्रिपताकेन विधत शरसा च।

विष-सपश्चीषाचरद्धस्समानीत त्रिपताकरिन

इव-आवर्तनेन

सुधारदिमः-द्विताधचन्दरेण |

यस्मिन-पाश्वगतस्चीभुखेन

दुनीति--थचितेन शिरसा विषप्णया दृष्या

मनोगते ~ हूत सन्दैश्रन

हदयं-हद्रतस्न्दश्ेन

अदये- हृद्‌ पाद वेष्टितपताकेन

तस्िन्‌-पशथगतस्रचीयुखेन

एवं-सरध्वतलस्रगदीरपेण

पुनः- बारवारमात्रेएटितप्ताकेन

वटते-अविष्टितोर्ध्वतरुपतकेन

चलात्‌-विस्तारितपताकाभ्याम्‌

छुवल्यदरां-कमलवर्तनया नेच रोटितंविपताक्रेन

वामः-ताम्रचूढेन।

कामःय बेषएटितचतुरेण

निकाम-मवेष्टितोष्वंगतपत्ताकाभ्याम्‌

(५

निरङ्शः-परस्तरुरभ्वा गुटि लोहितपताकिनाकमितताम्नचूडेन॥

^

१३१ अष्टपदी १६

अनिटतरखकुवर्य नयनेन | तपति सा किसलय रायनेन

अनि--ति्यक्प्रसारिताधस्तरचरप्रिपतक्रेन तरल-पिश्िषटंगुरिकस्पितपतकेन वलख्य-कमरवतेनया नयनेन-तिथणतद्षटया अपाङ्गेचछत्रिपताकेन तपति-विधुतेन शिरसा बिश्िषटं युलिचलदृष्वंगतपताकेन न-परस्तर रोरितपताकेन सा-पाश्वगतद्वचीयुखेन किखरय-पद्वहस्वकेन दायनेन-स्कन्थानतेन शिरसा कपोरगतार्थचन्रेण अथत्रा सुप्तः खानकेन। | सखि या रमिता वनमाथिना

सखि-अधस्तर सपेश्चीरषेण हृद्तपताकेन या-पाश्ेगतष्चीयुखन ` रभिता-पिरितांगुरितलधिपताकाभ्पामप्‌ | वनमाछिना-तरिमङ्गीयानकेन स्कन्धदेशाबरुजलुपर्न्तानीत खट -

काष्वाम्याप्‌

विकसितसरसिजखुलितस्ुखेन |

स्फुटति सा मनसिजविरिखेन २॥

कि

विकसित-विकपतितपुडरेन

१३४ *

सरसिज-फमरववनया छित - लोरितारृपह्षेन | 1 सुखेन -- हने(रधावातिंताटपष्टवेन

रफुटति-हृदयाभिगुखांगुषठविषरेण

न-पुरस्तरकम्पिततपताकेन

सा--पाश्वगतद्चचीष्ुखेन | मनसिज -हुघवेशटितचतुरेण

विशिखेन -वामप्रपारितष्ठटिदक्षिणाकणा ष्ट खटकाषुखाम्याप्‌ ॥२॥

अगतमधुरतर शदुचचनेन।

ज्वलति सा मटख्यजपवनेन ३॥ असत-तियगृ्वददितार्धचन्दरण मधुरतर- रो रितसन्दंशेन सदु-चारितां ष्टहसायेन वचनेन -अधराप्पुरोगतहंसाखेन। ज्वटति-र्वगतचरुदि श्लिष्टं गुहिपताक्रन न~~ परस्तरुरोरितपताकेन सा-पाश्वगतष्चचीश्ुखेन | मलयजपवनेन -- उर्णवद्रितारपष्ट्ादुपरितियगताधस्तरचरत्रि-

पतान ३॥

स्थल जलरुहं रुचिकर चरणेन

ह्टुखति सा हिमकर किरणेन ४॥

स्थर-अधोगुलिप्रस्तलदर्भितपताकेन जलरुद--कमरबर्तनया

व्दति दयत गर्नु कनकः नान्नकाले कतके +

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१२५

सचि--लोरितारपष्ठवेन

कर--करदाचितपतकेन

चरणेन--चरणद भित पताकेन

ल्टरेटठति-रताकरेणाङ्कव छितेन |

न--पुरस्तरकम्पितपताकेन

सा-पाश्वगतघचीगुखेन)

हिमकरकेरणेन-दशितचन्द्राचचरुदधस्समामात्‌ त्रिपतकेन ॥९॥ सजल जलद ससुदय रुचिरेण दलति साह्ृदि विरहे भरेण ५॥

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सजलजटद-ऊभ्वेदिर्त्िथिलां गुरयधस्तल पताकायाम्‌ सेखुदय-ऊध्वंविस्तारितपताङ्ाभ्याम्‌ रचेरेण-रोालितसर्न्दमेन दलति- क्षटिति वियुक्तघचीपुखास्याम्‌ -परस्तलकफभ्पितपताकेन सा-पाश्वगतद्ठचीषएुखेन हृदि-हृद्तसन्दंशेन विरह-वियुक्तष्र बालाभ्याम्‌ भरेण-पुरोमिरिताधस्तरीषृत रोरलितपताङाम्याम्‌ ५॥ कनकनिकषरुचि ह्युचि वसनेन म्वस्ति सा परिजन हसनेन

कनकनिकष-ऊध्वंतटपताककरमोषरिलोलितपन्दमेन रुचि-रोहितारूषद्छवेन इुचि-रोरितसन्दशेन

| १३६ वसनेन-शिरथलाकर्पितांचल खटकाष्ुेन ग्वसति--श्वास्च्छरासेन न-परस्तलकम्पितपताकेन सा-पार्थपत्वीयुखेन परिजन-अधस्तीकृतसपशी प्रपतारितपताक्राभ्याम्‌ हसनेने-प्रसन्नुखरागेण

सकरसुवन जनवरतरणेन वहानि सा सर्जमनिकरुणन ७॥

सकल-विस्तािोष्वंतरपताकेन | सुवन-ऊः४१तरसम्धामितय्रची खेन जन-उष्वतरविस्तारितपताकाभ्याम्‌ | वरतरुणेन-रोरितारुपछ्ेन मत्तर चाया मदिरया च्छया | वहति -- स्कन्धगतारपह्छ्रेन न~ पुरस्तर कम्पितपतफेन सा-पश्गतष्चंघरुखेन | रज॑-अचितेन धिशसा अति-आवेष्टितपताकेन करुणेन कस्णया द्या ७॥

री जयदेव वचनस्यनेन

प्रचिरातु हरिरपि हृदयमनेन <

श्री - उभ्वेगतारुप्येन जयदेव --रुलार खांजलिनाषधूतेन शिरसा वचन --अधरत्पुरोगतदंताखेन

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1६ १३७. |

रचनेन--परस्परमिठितव्ुवविली कितं पालयाभ्याप्‌ प्रविरातु-र्णेगतईषाखेन हृद्ववसन्दंशेन हरिः- परिमङ्कीष्ानकेन अपि--आवतेनेन हदयं --हृदतसन्द॑ेन अनेन परखितोर्वतरस्गशौर्पेण < मनोमवानन्दनचन्दनानेल परसीद रे दक्षिण सुश्च वामताम्‌ क्षणं जगस्प्राण निधाय माधवं पुरो मम धागहरो भनिष्यसि मनोनवानन्दन--हृयवेित चतुरेण विकसितष्ुङरेन न्दनानिल--भावःपतषठपम्यां चलदुरगतपताकाम्यां तियकपरसा रितपताकेन चरत्पुरस्समानीव तेनैषे प्रसीद पु्पपुटेन रे--परःप्रस्ारितपवाकेन दक्षिण--तियक्प्रसारित पुरस्समानीतचरत्रिपताकेन सुश्च-रनेविच्युतष्षटिना वामतां- ताम्रचूडेन क्लणं - विच्युतकापित्थन जगत्प्राण पुरो विस्तारितपताकाम्याम्‌ हृद्रत्ुृलेन निधाय चमैरधस्तरखीतपताकेन माधवं - भरिभङ्ीखानकेन पुरः-परःप्रसारितपताकेन

१२ मम-जत्रुदिंतारपह्येन प्रागहरः--हृद्रतभन्दगेन तियक्प्रमारितयपुष्टयाकर्षितेन \ भविष्यसि--किविदविष्टितोध्वं॑तरपताकेन बाधां पिधेहि मखयानिर पश्चवाण प्राणन्‌ गुहाण गह पुनाराश्रपिष्ये। ते क्रुनान्तमगिनि क्षमया तरङ्कः अङ्गानि सिञ्च मम रा।म्यतु देहदाहः वाधां-अधष्ुखषिरसा विषण्णया दृष्या च। विधेहि शनेरधस्तसीकृतपताकेन मख्यानिर- ऊध्व खिताखप्हषोपरिचलातिर्यकपरसपरेतविपतङेन पञ्चवाण--षिरलां युहि पुरस्तलपरताङेन वामग्रपतारितद्षट्या कण. कृष्षुटकायुखाभ्यापू | प्राणान्‌ -हृद्तपुङ्लेन | गृहाण --अधोभागाक्किचिदृष्वानीतपु्िना न--पुरस्तलकम्मपितपतकेन गृहं -ऊष्वपिलितसरगरशाषम्याम्‌ पुनः-अारवारपिष्टितोष्वैतरपतकेन आश्रपिष्ये--अघस्तलीकृतपत केन किते-षिच्युतसन्दननेन पुरोचिंतपताकरेन क्रतान्तममिनि-कृद्धया चया अधोयुहिपुर्रपासितितरिपतकेन क्षमया ~ हृत्सपीपे शनैरधत्तरी तपतान तरङ्गः--परस्पराचुग्चलदगु्पु्वांधस्वरपताङेन अङ्गानि--अङ्गदशितदपपक्तेण

3

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कः न्म =)

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4.

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६३९. सिथ्व--विक्षिपरागुरिपहखेन मम-- हूद्रतपताकेन शाम्यलु-एनैरधस्तरीढतपताकेन देह --स्कन्धमूलद सतारुपष्छेन | द्ाद्ः-अभितप्नषा दश्वा विधुतेन शिरसा चलद्विरलां पुलि पताकान्याम्‌ अथ कथम.पे यानभिनीं विनीय स्मरशारजर्षरितापि सा प्राते अमुनयवचनं वदन्तमग्रे प्रणतमपि पियमादे साभ्यसूयम्‌ अथ परोदतिंतपताक्रेन कथभपि--आवटितपताक्रन यामिनीं-ऊष्य॑तलविस्तारित पताकेनोभ्वागुक पर्लनिङ्कचितेन विनीय--उदेष्टितपतकेन स्मर - हृषित चतुरेण कार--रराकर्षणयुद्रया

क, कम (क,

जक्षरित-हृद यदेते दित्रिवारं सम्राट शिखेरणाङ्गवरितेन 0 = अपि--आवर्तनेन |

खा_ पार््गतघचीयुखेन प्रभाते-विस्तारितपताकाभ्याम्‌ | अनुनय शनेरधस्तली कृतपतकेन | व्वन॑--अधरास्पुरोगतदहं्ासयेन वदन्तं--अधरात्पुरोगतदंसास्येन अभरे- परस्तखदरितपताकेन

१४०

पणत - लरादघांजरिनाऽवषूुतेन शिरसा अपि--आवतेनेन प्रियं--हृद्तपताकेन आद ~ अधरास्पुरो गतर षाखेन साभ्यसुय-कुद्धया थ्या अष्टपदी 3७ रजनिजनिनयर्‌ जागररागकषायितमखसनिमषम्‌

[49

वहति नयनपलुरागभिवस्फुर ख॒दितरसाभिनिवेदाम्‌ ॥१॥

४,

रजनि--पृष्ठगतपतान | जनित - उरध्वगतारुपष्येन गुर्-उध्यगतप्रपारित पताकेन

जागर-अलस दृथ्या | % राग-हूद्तसन्द शेन

कघायथित-रोहितद्या

अलस-अरसद्ण्ा |

निमेष-नयनाधोगत कपित्थेन वह्‌ति-स्फन्धगताटपष्ेन

नयनं--अपाङ्गाबतित चलत्रिपताकेन | अराग -दृद्रतसन्दशेन

इव -आवतेनेन

स्फुर्द--प्रसारिततिर्यमातपताकेन

उदेत-ऊष्ययुखभिकसितश्ुद्लेन

रसाभिनिकेशं - हृद्रतपिष्टिताषोध्ुखचतुरेण

1

~<

19 १.३१

यादहिमाधव याटिकेराव समावद्‌ केतववादम्‌ तामन्॒सर सरसीरुहटाचन या तव हरति विषादम्‌

याहि- तियेगावेषटितपतफिन माधव-त्रिभङ्गोखानकेन।

याहि ~- पूर्ेवत्‌ '

केराव- केशबन्धेन

# मा-जवेनोध्वागुलिपरश्तलकरम्पितपवकङषिन

वद--अधरात्पुरोगतहंसाखेन

कैतव वाद्‌

ताँः-पाशवेमतप्रचीधुषेन

अलैसर--तियंक्परोगतस्सन्‌ पताकेन सरसीश्द-कमर्वतेनया खोचन--अपाङ्गचरमिपताकरेन } या-पार्थगतघचीधुखेनं

सव--परस्तकदभितपताकेन हरति-पुरोगतारुपष्ध्रावतेनपरावततंनेन विषादं--षिषृण्णया दृष्टया अधोधरुखेन रिरसाङ्वकितेन

कञ्नल मलिन विलोचन चुभ्थन विरचित नीटिमरूपम्‌।

# दह्ानवसनमद्णं तव कष्ण तनति तन)रुरूपम्‌ ॥२॥

कञ्चलट--नयनगतसन्दशेन भटिन- पिलिवद्चीषुखाभ्याम्‌ विलोचन-अपाङ्गावतिंतचरपरिपताङेन

' ५. इुम्बन-- अधरसमीये ऊउ्वराधोएखपुडकाम्पाप्‌

१४२

विरचित--अधोष्ठखहंमराखेन

नीलिम ऊर््वतटषिस्तारितपताकाभ्याप्‌

रूपं--अङ्गदरितंसम्दंशेन

ददरान--अधरोपरि चालितसन्देन

वसनं-अधरसमीपे अधस्तरी तचतुरेण

अर्णं-निष्पेषिताग्रसन्दश्ाभ्याम्‌

तब--पुरस्तख्दशितपताङेन

करुष्ण--प्रि मङ्ग खानकेन ` | तनोति--लोकितालपष्टवेन विस्तारितपताफेन | [त

तनोः--अङ्कद धितपताकेन

अनुरूपं पिरितखचीपुखाभ्याम्‌ ॥-२॥

२६५

वपुरलुद्रति तव स्मरसङ्र खरनखरक्षनरेखस्‌ मरकन दाकर्कलित कलौ तल्ििसिवि रतिजयलेखम्‌ ॥३॥

~. 11 ि ~ 1

वपु;ः--अङ्गदरितपताकेन अनुहरति --मिलितत्रिपताकाम्याम्‌ तव -- परस्तरुद शिंवपताकेन | | स्मर-दृदतवेषितचतुरेण सङ्र--बाप ~ ^

ठ्य पापम उ, पपरप्पम्पक्प

~ न्वध ~= + ^ १५

= त्य ~~ वथ . . ~

+

1 र)

अङ्घेष्वाभरणं (शो) अत्रान्तरे (श्यो) अथतां (छो) अथकथमपि (छो) अथागतां (शः) अनिरखतरल अनेकनारी (छ) अभिनव अमरकपमर अमूतमधुर अलषनिमीकलित अरिरछ

अहमिह (शशो)

अह मिह

अर्ह

आवापो (श्लो)

इतस्ततः (छो) दरस

उन्मदमदन

~ | श्रीः श्छोकानांः अष्टपदी प्रबन्धानाश्च अकरदिकमेण अदक्रमणिक्ा

पट

86 115 114

9 ~ ~

| उन्मीरन्पघु (श्ये)

उरसिरारेः

कं कञ्ज कथितसमयं कनक कन्दपज्चर (छो) करतल कापिकपोल का पिचपरा कापिविलाप्त काठिय विष ्विकरिष्यति किसलय कुुमभरशिख छषुमसुद्मार केलिकला फोकिरुकर कस्ारिरपि (श्लो) क्षणमपि (शो) क्षत्रि रुधिरं कषम्यतामपरं कितिरति

पुट 21

91

141

11; 185

85 81 36 119 36 16 69 8 48 118 36 654 65¶ 18

66

गणयति (छो) गोपकदम्ब

घटयति पनचय

च्च चश्चलङ्कण्डठ चन्दनचर्चत चन्द्रकचास्‌ चरण किसे चरणरणित चिन्तयामि

छठि

जनकषुता जलूदपरल जितमिप्

तघकरं

तव चरणे तानिस्पं (शो) तर्किकामपि (छो) तन्विलिन्न

तामहं हृदि

49 | त्यजति

48 | त्वदभिसरण

त्वद्वाष्ेण (रो)

126 स्वरितशरपेति

198 | _ , दहति शिक्षिर

121 | दर षिदलित (छो)

88 | दयित विलोकित

41 | दिनमणि

128 | दिशिदिशि

> | दुरालोक (शो)

68 | द्यसे पुरतो

1 | | धीरसमार 8 | ध्यानङयेन प्वनतिमधुष 4 न्‌

44 | नयन विषयं

196 | नामसमेतं

| नाहर

8 | नायातः सखि (श्लो) 18 | नित्योत्पङ्क (श्छ) 68 | निन्द ति चन्दनं 117 | निन्दियज्ञ

64 | निभत निङ्कञ्ज

पूर 68 88 105 99 101

88 ५0) 191 15 8४ ` 46 65

94 6

89

82 95 106 180 29 ` , 1 1. 60... ¦

पततिपतप्र परयति दिरि पञ्चापयो (श्छ)

पाणो मा ज्र (छो) पौनपयोधर

पूवं यत्र (छो) प्रतिपदं

प्रथम समागम प्ररख्यपयोधि प्रसरति (छो)

घाधां विधेहि (छो)

ॐ, 4

भणति कवि भवति पिरिनि भ्रचापे निहितः शरपह्छवे (छो) मणिमय मदनमदी परधुष्ुर मनोभव (छो) मम परणं माधमिफा

माभिथ

पुट

99 104 13 60 34 ९1 १६

6 110

188

90 108

69

44 8 16 181 113 46 64

मापहह मुखरमधीरं पुहुरखरोफित . सृगपद्‌ मवेभदुरं (शो) स्रेच्छ निब यदनुगमनाय यदि हरि शो) यष्रुनातीर ष्ठो) यापिदहे याहि माघव

रजनिज नित

रतिगृह रतिख्ुख

५१ रपते यथ्रुना रमयति राधिका रासे हरि रासोष्छास्र (श्वो) रिपृखि (छो)

रखणितलबङ्खः व्भितं जयदेषकन

पुट 114 9८ 106

119 141

140 141 98 56 {45 ` 128 80 41 3४ 181

पृपुरनु वसतिदशने वसन्ते (श्छ) वसाति भिपिन वहत्ति

वहति मलय वहसि वपुषि वाग्देवता (श्वो) विगरित विगते पिकसित विकिरति शो) पिचरदरूक वितरसि विपुरपखुकं

14,

)9 (शो) मिरहपाण्डु (शो) भिलिखति पिश्दकदम्ब विश्वेषापनु (षो) विहरति

9५ (छो) विहित धिश्षद्‌ वेदानुद्धरते (शो)

दर.

शभ्रमजद

<

पुट 149 | धितकपला 7| श्रीजयदेव 0; 89 | =, 0 &4 १) 10 | ,, 8 1, 98 | ,, 6 | ,+ 198 | ,, 100 | „+

120 | श्रीजयदेव

10 | शिष्यति कापमि

192 | शिष्यति च्ंमति

48 , श्वसितपवनं

109 सख

128 | सक्रखमुवन

15 | सखि सीदति

46 | ससिहे केशि

81 | सखि यारमिता

28 | सजल्जलद

89 | सश्रद्धर

106 | सभय (छो)

4 | समुदित सरसमद्यण

102 पता प्रिरहै

(५

=. _ 2

84

108 143 157 85 107 1

~ ६५ 2 1 स, = ~ "व 9 ~ कन

186 68 61

138

185 > 40 `

101

124 8

स्तन विनिदित

स्थरजछं

॥,

स्फुरदति स्मरसभर सरातुरं छो)

हरहर

5

पुट

80 | हरिचरण

184 | हरिपिरिरंभण

| हरिरिमिपानी

119 | हरिरिह

84 | हरिरिति हस्तखस्त (शो)

८2 | हृदि विस (छी)

116 140 98 34 83 44 58

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